सुहागरात की सुबह में यह मुस्तह़ब (बेहतर) है कि दूल्हा अपने महमानों और रिश्तेदारों के लिए वलीमा करे (यानी खाना बनवाकर उनकी दावत करे।) सुहागरात को दूल्हा -दुल्हन के लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की वसियतों में इसका आदेश भी दिया गया है। अतः आप नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने अपने एक सह़ाबी को आदेश देते हुए कहा : " वलीमा करो भले ही एक बकरी से करो। " ([1]) और एक दूसरी रिवायत में है: "अल्लाह तुम्हें बरकत दे। वलीमा करो भले ही एक बकरी से करो।" ([2]) इस वसियत के द्वारा हमें वलीमा करने का आदेश मिलता है। ज़ाहिर में इस ह़दीस़ शरीफ से यह समझ आता है कि वलीमा वाजिब (अनिवार्य ) है। लेकिन अधिक विद्वानों का यह कहना है कि वलीमा सुन्नते मुस्तह़बह है। और बकरी का आदेश ऐसे व्यक्ति के लिए है जो इसकी क्षमता रखता हो। इसका यह मतलब नहीं है बकरी के द्वारा ही वलीमा करे। अतः स़फ़्फ़ियह बिन्ते शैबह से वर्णित है वह कहती हैं : अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने कुछ पत्नियों का वलीमा दो मुद्द (लगभग 510 ग्राम का एक मुद्द होता है।) जौ से किया।([3]) एक बड़े विद्वान ह़ज़रत बग़वी -अल्लाह उन पर दया करे- कहते हैं : वलीमा वाजिब (अनिवार्य) नहीं है। बल्कि वह सुन्नत है। और इन्सान के लिए मुस्तह़ब (अच्छा) है कि जब अल्लाह उसे कोई नेमत (कृपा व उपकार) दे तो वह उसका धन्यवाद करे। इसी तरह से अ़क़ीक़ा करना, खतना करना और किसी के गायब होने के बाद आने पर दावत करना, ये सब मुस्तह़ब सुन्नतें हैं जब इसमें अल्लाह की नेमतों (कृपाओं) का धन्यवाद करना लक्ष्य हो। ([1]) यह ह़दीस़ सही़ह़ है, इसे इमाम बुखारी ने (1/13), (5/39), इमाम मुस्लिम ने (1427),इमाम मालिक ने मुअत़्ता (545) में, इमाम अह़मद ने (3/165/190/205), अबु दाऊद ने (2109), तिरमिज़ी ने (1094), (1933) , निसई ने (6/120), इब्ने माजह ने (1907), दारमी ने (2/143) और बइहक़ी ने सुनने कुबरा (7/148) में उल्लेख किया है। ([2]) यह ह़दीस़ सही़ह़ है, बुखारी (7/27), (8/102), मुस्लिम (1427),तिरमिज़ी (1094), इब्ने माजह (1907) सुनने सई़द बिन मनस़ूर (611) ([3]) यह ह़दीस़ सही़ह़ है, बुखारी (5172)