शादी वाले दिन दूल्‍हा-दुल्‍हन के लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की वसियतों में से एक वसियत:जायज़ तरीके का खेल कूद व खुशी मनाना है। ह़ज़रत आ़एशा रज़ी अल्लाहु अ़न्हा)उल्लेख करती हैं कि वह एक दुल्हन को(उसके पति)एक अन्सारी व्यक्ति के पास ले गईं, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया:"ऐ आ़एशा!क्या तुम्हारे साथ कोई खेल (दफ बजाने वाला) नहीं था? क्योंकि अन्सार को खेल (दफ)पंसद है।"([1]) और एक दुसरी रिवायत में है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने ह़ज़रत आ़एशा से उस अनाथ लड़की के बारे में पूछा जो उनके पास रहती थी, और फरमाया: उस लड़की क्या हुआ? तो ह़ज़रत आ़एशा ने कहा : हमने उसे उसके पति को उपहार के तोर पर दे दिया, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया : क्या तुम ने किसी लड़की को उसके साथ भेजा जो दफ़ बजा कर कुछ गाती? ह़ज़रत आ़एशा ने पूछा वह क्या गाती? तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया : वह कहती : हम तुम्हारे पास आए, हम तुम्हारे पास आए। तुम हमारा स्वागत करो हम तुम्हारा स्वागत करें। अगर लाल सोना ना होता तो गांव के लोग तुम्हारे पास ना आते। अगर भूरे रंग के गेहूं ना होते तो तुम्हारी लड़कियां मोटी ना होतीं।([2]) और खा़लिद बिन ज़कवान से उल्लेख है कि रुबैए़ बिन्ते मुअ़व्विज़ कहती हैं: " मेरी सुहागरात की सुबह को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मेरे पास तशरीफ लाए, और मेरे बिस्तर पर आकर उस जगह बैठ गए जहाँ तुम बैठे हुए हो, तो कुछ बच्चियां दफ़ बजाने लगीं, और बद्र के युद्ध में शहीद होने वाले मेरे परिवार के लोगों के बारे में कविताएँ पढ़ने लगीं, यहां तक की एक लड़की ने कहा : " और हमारे बीच ऐसे नबी हैं जो यह जानते हैं कि कल क्या होगा " तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उस लड़की से फरमाया : यह छोड़ो, और वही पढ़ो जो पहले पढ़ रही थीं।" ([3]) इस ह़दीस़ शरीफ में (बुनिया बी) शब्द आया है, इसका मतलब पत्नी के साथ सुहागरात मनाना है, ह़ज़रत इब्ने सअ़द ने" अल त़बक़ात अल कुब्रा " में कहा कि रुबैए़ बिन्ते मुअ़व्विज़ की शादी उस समय इयास बिन अल बकीर के साथ हुई थी और मुह़म्मद बिन इयास उनसे पैदा हुए। " ह़दीस़ शरीफ में (कमजलिसका) शब्द आया है, इसका मतलब है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम उस जगह बैठे थे जिस जगह अभी तुम बैठे हुए हो, नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम उनके पास इस तरह से बैठना घूंघट व पर्दे की आड़ में था, या फिर यह पर्दे के बारे में आयत उतरने से पहले की बात है, या फिर आवश्यकता के समय या किसी तरह का फितना न होने के समय महिला को देखना जायज़ है। एक बड़े विद्वान ह़ज़रत इब्ने ह़जर अल अ़सक़लानी कहते हैं: "आखिरी वाली वजह ही विश्वसनीय और भरोसे के लायक है, और मजबूत सबूतों व दलीलों से यह बात साबित है कि गैर महिला के साथ अकेले हो जाना और उसे बिना घूंघट के देखना अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की विशेषताओं व खासियतों में से एक विशेषता व खासियत है, और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का उम्मे ह़राम बिन्ते मिल्ह़ान के पास जाना, उनके यहाँ सोना, और उनका आपके सर में जूं देखना जबकि ना तो वह महिला आप पर ह़राम थीं और न ही वह आपकी बीवी थीं, तो इस बारे में यही सबसे सही उत्तर है। " और अल करमानी ने कहा कि हो सकता है कि ह़दीस़ शरीफ में (मजलसका) शब्द हो यानी" लाम " के पैश के साथ, जिसका अर्थ यह है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ऐसे बैठे थे जैसे तुम बैठे हुए हो, तो अब कोई एतराज व समस्या नहीं होगी।([4]) ह़दीस़ शरीफ में (यनदुब्ना) शब्द आया है, और यह शब्द "नुद्ब" नुन के ऊपर पैश , से बना है, जिसका अर्थ मृतक की प्रशंसा करते हुए उसकी उदारता और साहस व बहादुरी जैसी अच्छाइयों को बयान करना है, ऐसा करना उसकी याद दिलाता है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की इस वसियत निम्नलिखित चीजे़ प्रपात होती हैं। (1) विवाह का एलान करना और उस में दफ़ बजाना मुस्तह़ब व पसंदीदा है। (2) शादी की सुबह दफ़ की आवाज़ सुनना जायज़ है। (3) अल्लाह के अलावा किसी ओर के लिए परोक्ष (गै़ब व अनदेखे) का ज्ञान बताना ह़राम है। (4) शासक व बादशाह को शादी और विवाह में जाना चाहिए भले उस विवाह में ऐसे खेल हों जो जायज़ की सीमा से न निकलते हों। (5) किसी व्यक्ति के सामने उसकी प्रशंसा करना जायज़ है जब तक कि उस प्रशंसा में ऐसी कोई बात न कही जाए जो उस व्यक्ति के अन्दर नही है। ([1]) यह ह़दीस़ शरीफ सही़ह़ है, बुख़ारी (5162), हा़किम (2/184) बइहक़ी " सूनने कुब्रा" (7/288) ([2]) यह ह़दीस़ ह़सन लिग़ैरिही है, ईमाम तिबरानी ने इसे अपनी किताब " अल मुअ़जम अल औसत " (4/289) में बयान किया है जैसा कि अल मजमअ़ में है। और इसमें इसकी सनद द़ई़फ़ है। और अनस इब्ने मालिक, जाबिर, इब्ने अ़ब्बास और ह़ज़रत आ़एशा रज़ी अल्लाहु अ़न्हुम से इस पर शवाहिद हैं। ([3]) यह ह़दीस़ शरीफ सही़ह़ है, इसे ईमाम बुख़ारी (4001), (5147), अबु दाऊद (4922),इब्ने माजह (1897), बग़वी ने "शरहु़स्सुन्नह" (2265) में, और बइहक़ी (7/289) ने इसे बयान किया है, और इसी तरह से इब्ने सअ़द ने त़बक़ात (8/477) में, ईमाम अह़मद ने इस शब्द " أما هذا فلا تقولوه"(अम्मा हाजा़ फ़ला तक़ूलूहु) के साथ, और ईमाम तिरमिज़ी ने इस शब्द "اسكتي عن هذا وقولي الذي كنت تقولين ")उसकुती अ़न हाजा़ व कू़ली अल्लजी़ कुन्ती तक़ूलीनहू( के साथ बयान किया है। ([4]) फ़तह़ुल बारी (9/203)