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पहला उदाहरण
आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा - अल्लाह उनसे खुश रहे - ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम – उनपर अल्लाह की दया व शान्ति अवतरित हो – से पूछा:
क्या आप पर कोई ऐसा दिन भी आया है जो उहुद के दिन से भी अधिक कठिन रहा हो? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ''मुझे तुम्हारी क़ौम की ओर से जिन जिन मुसीबतों का सामना हुआ वह हुआ ही, और उन में से सबसे कठिन मुसीबत वह थी जिस से मैं घाटी के दिन दो चार हुआ, जब मैं ने अपने आप को अब्द-यालील पुत्र अब्द-कुलाल के बेटे पर पेश किया। किन्तु उसने मेरी बात न मानी तो मैं दुख से चूर, ग़म से निढाल अपनी दिशा में चल पड़ा और मुझे 'क़र्नुस-सआलिब' नामी स्थान पर पहुँच कर ही इफाक़ा हुआ। मैं ने अपना सिर उठाया तो क्या देखता हूँ कि बादल का एक टुकड़ा मुझ पर छाया किए हुए है। मैं ने ध्यान से देखा तो उसमें जिब्रील थे। उन्हों ने मुझे पुकार कर कहाः आप की क़ौम ने आप से जो बात कही और आप को जो जवाब दिया अल्लाह ने उसे सुन लिया है। उसने आप के पास पहाड़ का फरिश्ता भेजा है ताकि आप उनके बारे में उसे जो आदेश चाहें, दें। उसके बाद पहाड़ के फरिश्ते ने मुझे आवाज़ दी और मुझे सलाम करने के बाद कहाः ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम! बात यही है, अब आप जो चाहें। अगर आप चाहें कि मैं इन को दो पहाड़ों के बीच कुचल दूँ (तो ऐसा ही होगा)। पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ''नहीं, बल्कि मुझे आशा है कि अल्लाह तआला इनकी पीठ से ऐसी नस्ल पैदा करेगा जो केवल एक अल्लाह की इबादत (उपासना) करेगी और उसके साथ किसी चीज़ को साझी नहीं ठहराए गी।'' (सहीह बुखारी)