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(40) जो काम करो ठीक तरह से करो और हद से ना से ना ना बड़ जाओ बल्कि उसके करीब रहो। (यानी मध्यमार्ग और संतुलन से काम करो)
عَنْ عَائِشَةَ زَوْجِ النَّبِيِّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَنَّهَا كَانَتْ تَقُولُ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّم:َ
"سَدِّدُوا وَقَارِبُوا وَأَبْشِرُوا فَإِنَّهُ لَنْ يُدْخِلَ الْجَنَّةَ أَحَدًا عَمَلُهُ" قَالُوا وَلَا أَنْتَ يَا رَسُولَ اللَّهِ قَالَ: "وَلَا أَنَا إِلَّا أَنْ يَتَغَمَّدَنِيَ اللَّهُ مِنْهُ بِرَحْمَةٍ وَاعْلَمُوا أَنَّ أَحَبَّ الْعَمَلِ إِلَى اللَّهِ أَدْوَمُهُ وَإِنْ قَلَّ".
तर्जुमा: ह़ज़रत आ़एशा कहती थीं कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
" जो काम करो ठीक तरह से करो और हद से ना बड़ जाओ। (यानी मध्यमार्ग और संतुलन से काम करो) और खुश रहो। और याद रखो कि कोई भी अपने अमल की वजह से जन्नत में नहीं जाएगा।" सह़ाबा ने कहाः " और आप भी नहीं? ए अल्लाह के रसूल!" आपने फ़रमाया: "और मैं भी नहीं मगर यह कि अल्लाह अपनी मग़फिरत और रह़मत के साए में मुझे ढांप ले। और जान लो कि मेरे नज़दीक सबसे पसंदीदा काम वह है जो हमेशा किया जाए भले ही कम क्यों न हो।"
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम हमेशा अपने सह़ाबा ए किराम को कहने और करने में दुरुस्तगी और संतुलन व मध्यमार्ग का हुक्म देते थे जैसा कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह ने हुक्म दिया है। उसमेँ है:
﴿یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰہَ وَ قُوۡلُوۡا قَوۡلًا سَدِیۡدًا ﴾
(सूरह: अल-अह़ज़ाब, आयत संख्या: 70)
तर्जुमा: ए इमान वालों अल्लाह से डरो और सीधी बात करो।
कहने और करने में दुरुस्तगी का मतलब यह कि सच बात करे। और करने में दुरुस्तगी का मतलब यह है कि उसे ठीक तरह से करे। लेकिन अगर अपने कहने में पूरी तरह सच का दामन नहीं थाम सकता तो जहाँ तक हो सके अपनी ताकत के मुताबिक उसमें सच्चा रहने की कोशिश करे। और अपने आपको मुसीबत में ना डाले। इसकी मिसाल इंशा अल्लाह हम आगे बयान करेंगे। और इसी तरह अगर पूरा काम ठीक तरह से नहीं कर सकता है तो जितना हो सके अपनी हैसियत के मुताबिक उसे ठीक करने की कोशिश करे। क्योंकि जो चीज़ पूरी हासिल नहीं हो सकती उसे पूरी तरह नहीं छोड़ देना चाहिए बल्कि जितनी हो सके ले लेना चाहिए।
उदाहरण के लिए गवाही देना एक ऐसा मामला है जिसे पूरी तरह से सच्चाई के साथ अदा करना चाहिए। इसमें किसी भी तरह की कोई तब्दीली नहीं होना चाहिए। और वह केवल अल्लाह की रजा़ के लिए हो। जैसा कि अल्लाह ने हमें हुक्म दिया है:
﴿وَ اَقِیۡمُوا الشَّہَادَۃَ لِلّٰہِ ﴾
(सूरह: अल-त़लाक़, आयत संख्या: 2)
तर्जुमा: और अल्लाह के लिए गवाही क़ायम करो। यानी सच्चाई और इंसाफ के साथ गवाही दो जिसमें किसी भी तरह की कोई तब्दीली ना हो। ना उसमें ज़्यादती हो और ना ही कमी। इसलिए पूरे तौर से सही़ह़ गवाही वही शख्स दे सकता है जो शब्दों के तरीकों में माहिर हो, तजुर्बे कार हो, स्थितियों और उनकी तब्दीली का अच्छा जानकार हो और इनके अलावा जैसे साबित रहने, सच्चाई का सामना करने, बिना किसी डर के हक़ व सच को साबित करने और झूठ को गलत ठहराने वाली जैसी बेहतर विशेषताएं उसके अंदर मौजूद हों जो सच्च गवाही देने में उसकी मदद करें।