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(57) ए अल्लाह मैंने अपनी जान पर बहुत ज़ुल्म ढाए हैं।

132 2020/09/05
(57) ए अल्लाह मैंने अपनी जान पर बहुत ज़ुल्म ढाए हैं।

عَنْ أَبِي بَكْرٍ الصِّدِّيق رضي الله عنه - أَنَّهُ قَالَ لِرَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:

عَلِّمْنِي دُعَاءً أَدْعُو بِهِ فِي صَلَاتِي. قَالَ: "قُلْ اللَّهُمَّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي ظُلْمًا كَثِيرًا، وَلَا يَغْفِرُ الذُّنُوبَ إِلَّا أَنْتَ فَاغْفِرْ لِي مَغْفِرَةً مِنْ عِنْدِكَ، وَارْحَمْنِي إِنَّكَ أَنْتَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ".

तर्जुमा: ह़ज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से कहा:

" मुझे कोई दुआ़ सिखा दी जिए जिसे मैं अपनी नमाज़ में क्या करूँ।" तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "तुम कहा करो:

اللَّهُمَّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي ظُلْمًا كَثِيرًا وَلا يَغْفِرُ الذُّنُوبَ إِلا أَنْتَ فَاغْفِرْ لِي مَغْفِرَةً مِنْ عِنْدِكَ وَارْحَمْنِي إِنَّك أَنْتَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ

(अल्लाहुम्मा इन्नी ज़लम्तु नफ़्सी ज़ुल्मन कस़ीरन वला यग़फ़िरु अल-ज़ुनूब इल्ला अन्त फ़ग़फ़िरली मग़फ़िरतन मिन इ़न्दिक व इरह़म्नी इन्नक अन्त अल-ग़फ़ूरु अल-रह़ीमु)

(तर्जुमा: ए अल्लाह मैंने अपनी जान पर बहुत ज़ुल्म ढाए हैं। और गुनाहों को तू ही माफ करने वाला है। तो मेरे गुनाहों को अपनी तरफ से माफ कर दे और मुझ पर रह़म (यानी दया) कर। बेशक तू ही बहुत ज़्यादा माफ करने वाला और निहायत रह़म (दया) करने वाला है।)” ह़ज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रद़ियल्लाहु अ़न्हु रात और दिन अल्लाह की बारगाह में दुआ़ करते रहते जबकि आप रद़ियल्लाहु अ़न्हु तमाम सह़ाबा में सबसे ज़्यादा अल्लाह से डरते थे। अतः (इस उम्मत में ) नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के बाद आप ही सबसे ज़्यादा नेक, परहेज़गार और अल्लाह से डरने वाले व्यक्ति हैं।

अगर बंदा अल्लाह की बारगाह में अपने सच्चे दिल से अपने गुनाहों का इस तरह से इकरार करे और फिर अपनी ज़ुबान से भी उसका एतराफ करे तो यह अल्लाह ताआ़ला की रजा़ व खुशी और अपनी मुराद के प्रताप करने का बेहतरीन ज़रिया है। और नेक बंदा अल्लाह की बारगाह में बहुत ज़्यादा इस तरह का इकरार करता है क्योंकि उसमें उसकी बंदगी और कमज़ोरी और अल्लाह की बारगाह में उसकी मोहताजी और उस पैदा करने वाले की संपूर्ण क़ुदरत का मुकम्मल तौर पर इज़हार है और खास तौर से जब यह इकरार नमाज़ में हो। क्योंकि नमाज़ बंदे और उसके अल्लाह के दरमियान सबसे मज़बूत और नज़दीकी रिश्ता है जिसमें बंदा अपने रब के दरबार में अपनी पूरी कमज़ोरी को ज़ाहिर करता है और अपने रब की अज़मत व महानता और बढ़ाई का इकरार और एतराफ करता है क्योंकि वह अपने रब के आदेश का पालन करते हुए अपने माथे को ज़मीन पर रख देता है भले ही वह दुनिया में कितना ही सम्मान वाला व्यक्ति हो और वह समाज में कितने ही ऊंचे स्थान पर हो।

और याद रहे है कि सजदा दुआ कबूल होने की सबसे बेहतर जगह है।

पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइटIt's a beautiful day