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(67) सोओ भी और नमाज भी पढ़ो, रोजे भी रखो और खाओ पियो भी।
عَنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ عَمْرٍو – رضي الله عنهما - : دَخَلَ عَلَيَّ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَ:
"أَلَمْ أُخْبَرْ أَنَّكَ تَقُومُ اللَّيْلَ وَتَصُومُ النَّهَارَ" قُلْتُ بَلَى، قَالَ: "فَلَا تَفْعَلْ، قُمْ وَنَمْ، وَصُمْ وَأَفْطِرْ؛ فَإِنَّ لِجَسَدِكَ عَلَيْكَ حَقًّا، وَإِنَّ لِعَيْنِكَ عَلَيْكَ حَقًّا، وَإِنَّ لِزَوْرِكَ عَلَيْكَ حَقًّا، وَإِنَّ لِزَوْجِكَ عَلَيْكَ حَقًّا، وَإِنَّكَ عَسَى أَنْ يَطُولَ بِكَ عُمُرٌ وَإِنَّ مِنْ حَسْبِكَ أَنْ تَصُومَ مِنْ كُلِّ شَهْرٍ ثَلَاثَةَ أَيَّامٍ؛ فَإِنَّ بِكُلِّ حَسَنَةٍ عَشْرَ أَمْثَالِهَا فَذَلِكَ الدَّهْرُ كُلُّهُ". قَالَ: فَشَدَّدْتُ فَشُدِّدَ عَلَيَّ، فَقُلْتُ: فَإِنِّي أُطِيقُ غَيْرَ ذَلِكَ، قَالَ: "فَصُمْ مِنْ كُلِّ جُمُعَةٍ ثَلَاثَةَ أَيَّامٍ". قَالَ: "فَشَدَّدْتُ فَشُدِّدَ عَلَيَّ، قُلْتُ: إِني أُطِيقُ غَيْرَ ذَلِكَ، قَالَ:"فَصُمْ صَوْمَ نَبِيِّ اللَّهِ دَاوُدَ" قُلْتُ: وَمَا صَوْمُ نَبِيِّ اللَّهِ دَاوُدَ؟ قَالَ:"نِصْفُ الدَّهْرِ".
तर्जुमा: अब्दुल्लाह बिन अ़म्र रद़ियल्लाहु अ़न्हुमा कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मेरे पास तशरीफ लाए और फरमाया: क्या मुझे यह खबर नहीं मिली है कि तुम रात में नमाज पढ़ते हो और दिन में रोज़े रखते हो? उन्होंने कहा: क्यों नहीं, जी हाँ ऐसा ही है। नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
तुम ऐसा हरगिज ना करो, सोओ भी और नमाज भी पढ़ो, रोजे भी रखो और खाओ पियो भी। क्योंकि तुम्हारे बदन का भी तुम पर हक़ है, तुम्हारी आंख का भी तुम पर हक़ है, तुम्हारे मेहमान का भी तुम पर हक़ है, तुम्हारी बीवी का भी तुम पर हक़ है। उम्मीद है कि तुम्हारी उम्र लंबी हो। लिहाज़ा तुम्हारे लिए बस इतना काफी है कि हर महीने में तीन रोज़े रखा करो, क्योंकि एक नेकी का स़वाब दस गुना होता है तो इस तरह से यह जिंदगी भर रोजे रखना जैसा हो जाएगा। हजरत अ़ब्दुल्ला बिन अ़म्र कहते हैं: तो मैंने सख्ती चाही तो मुझ पर सख्ती कर दी गई, मैंने कहा: मैं इससे ज़्यादा की ताकत रखता हूँ। तो नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: तो हफ्ते में तीन दिन रोज़े रख लिया करो। हजरत अ़ब्दुल्ला बिन अ़म्र कहते हैं: मैं ने सख्ती चाही तो मुझ पर सख्ती कर दी गई, मैंने कहा मैं इससे ज़्यादा की ताकत रखता हूँ। तो नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: तुम अल्लाह के नबी दाऊद अ़लैहिस्सलाम के रोज़ो की तरह रोज़े रख लिया करो। हजरत अ़ब्दुल्ला बिन अ़म्र कहते हैं: मैंने कहा दाऊद अ़लैहिस्सलाम के रोज़े क्या हैं? तो नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: एक दिन रोजा़ और एक दिन इफ्तार।"
अत: तमाम मामलों में वसतियत यानी संतुलन और मध्यमार्ग हि इस्लाम का तरीक़ा है। और यह एक ऐसा तरीक़ा है जो हर चीज में संतुलन पर आधारित है। लिहाज़ा इस्लाम के अन्दर न तो किसी चीज़ हद से ज़्यादती है और न ही हद से ज़्यादा कमी। और न ही नुकसान उठाना है और न ही नुकसान पहुंचाना। इंसान पर जिस्म का हक है यह है कि उसे राहत और सुकून दे। संतुलनकारी के मुताबिक उसकी ख्वाहिशें को पूरा करे। बिना ज़्यादती के खाने पीने दे, सख्त गर्मी और सर्दी से उसकी सुरक्षा करे, तबीयत का ख्याल रखे ताकि बीमारियों से बच सके और सही तरीके अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर सके। और हैसियत के मुताबिक अच्छे कपड़े वगैरह भी पहने। क्योंकि अच्छी तरह से रहना औ अच्छे कपड़े पहनना आदमियत यानी मानवता का एक हिस्सा है जिसका हर इज़्ज़तदार आदमी ख्याल रखता है।
और उस पर उसकी आंख का हक़ यह है कि उसे सोने दे। नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने आंख को खास तौर पर अलग से ज़िक्र किया बावजूद इसके कि यह भी बदन में शामिल है ताकि आपके फरमान: "सोओ भी और नमाज़ भी पढ़ो।" की अच्छी तरह से ताकीद हो जाए। नींद अल्लाह तआ़ला ने बदन के सुकून के लिए बनाई है। अतः कोई भी इंसान और जानवर इसके बिना नहीं रह सकता। लिहाज़ा नींद एक बहुत बड़ी नेमत है। इबादत सिर्फ़ नमाज़ या रोज़े ही में नहीं है बल्कि हर फायदे मंद हरकत हर लाभदायक काम और मुलाकात और जायज़ खेल कूद में भी इबादत है। अगर इंसान दूसरे लोगों से अलग हो जाए तो अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों के अधिकार यानी ह़क़ से संबंधित अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे निभाएगा? क्योंकि इन सब के भी उस पर कुछ अधिकार और हक़ हैं। तथा अल्लाह तआ़ला ने अपने बंदों को हुक्म दिया है कि वे आपस में एक दूसरे को जाने और नेकी और परहेज़गारी पर एक दूसरे की मदद करें। अगर इंसान अपनी इ़बादत की जगह में ही बैठा रहा या दिन में रोजे़ रखे और रात में नमाज पढ़े और घर ही में पड़ा रहा है, और किसी से न मीले झुले तो वह अल्लाह के इस हुक्म पर कैसे अमल करेगा।