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(80) तुम सब अल्लाह के बंदे हो।
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ، أَنَّ رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:
"لَا يَقُولَنَّ أَحَدُكُمْ عَبْدِي وَأَمَتِي، كُلُّكُمْ عَبِيدُ اللهِ، وَكُلُّ نِسَائِكُمْ إِمَاءُ اللهِ، وَلَكِنْ لِيَقُلْ غُلَامِي وَجَارِيَتِي وَفَتَايَ وَفَتَاتِي".
तर्जुमा: ह़ज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
"तुम में से कोई व्यक्ति अपने (ग़ुलाम या नौकर और नौकरानी) को "मेरा बंदा और मेरी बंदी " ना कहे। तुम सब अल्लाह के बंदे हो और तुम्हारी सभी औरतें अल्लाह कि बंदियाँ हैं। बल्कि यूँ:"मेरा गुलाम (खादिम), मेरी खादिमा, मेरा लड़का (या बेटा) और मेरी लड़की (या बेटी)।"
इस ह़दीस़ शरीफ से हमें बहुत अहम सबक मिलता है वह यह है कि जहाँ तक हो सके हमें बात चीत करते समय अच्छे से अच्छे और लाभदायक और फायदेमंद शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। और ऐसे शब्दों से बचना चाहिए जो अल्लाह की बारगाह के अदब के खिलाफ हों या जिनसे लोगों को ठेस पहुंचे या जो इंसानियत, अखलाकी नियमों और अच्छी आदतों के खिलाफ हों और अच्छाई से परे हों।
बेशक इस्लामी शरीयत एक मुकम्मल दीन और दुनिया के लिए एक मुकम्मल संविधान है। लोगों की जरूरतों के हर छोटे बड़े मसले का हल उसके अंदर मौजूद है।
बेशक सहाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से यह सब भी सीखते थे कि लोगों से किस तरह बात करना चाहिए और बातचीत के दौरान ऐसे कौन से शब्दों को इख्तियार करना चाहिए कि जिन से दूसरों की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे और सुनने में बुरे ना लगें जैसा के इस ह़दीस़ शरीफ से साफ जाहिर है।
लिहाज़ा नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "तुम में से कोई व्यक्ति अपने (ग़ुलाम या नौकर और नौकरानी) को "मेरा बंदा और मेरी बंदी" ना कहे।" यानी परिचय कराते हुए यह ना कहे कि यह मेरा बंदा है और यह मेरी बंदी है। क्योंकि यह अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की इज़्ज़त करने, उससे शर्म और हया करने और उसकी बारगह के अदब के खिलाफ है। तथा अपने नौकर या नौकरानी या ग़ुलाम पुरुष या ग़ुलाम औ़रत को ए मेरे बंदे और ए मेरी बंदी कहकर ना पुकारे। मक्योंकि इस शब्द में से गुलाम की तोहीन और रुसवाई और पुकारने वाले के गुरुर और घमंड की बू आती है।
लेकिन जो अल्लाह से शर्म और हया करता है तो वह इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता है। बेशक हम सब अल्लाह ही के बंदे हैं। और हमारी सभी औरतें अल्लाह ही की बंदियाँ हैं। और यह बात हम फितरती तौर पर जानते हैं। और हमें बेशक इसका पूरा यकीन है।
लिहाज़ा हमें नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने सिखाया कि हमें अपने गुलामों या नौकरों का परिचय कैसे कराना चाहिए या उन्हें किस तरह से पुकारना होना चाहिए। लिहाज़ा आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि लेकिन यूँ कह सकता है कि " मेरा गुलाम, मेरी खादिमा, मेरा लड़का (या बेटा) और मेरी लड़की (या बेटी)।" ये ऐसे शब्द हैं जिनमें प्यार और मोहब्बत और दया और समान झलकता है। और कहने वाले की नरमी, कोमलता और अल्लाह के साथ-साथ लोगों के लिए उसके दिल में अदब और एहतराम का पता चलता है। जैसे कि ये शब्द नफ्स को उसकी सर कशी और घमंड से रोकते हैं और उसे अल्लाह की अ़ज़मत और सम्मान के आगे झुकने पर तैयार करते हैं।
इस्लाम गुलामी के खात्मे के लिए हमेशा कोशिश करता रहा है लेकिन ऐसे शांति और उद्देश्यपूर्ण तरीके़ से जिससे न तो अर्थव्यवस्था पर कोई असर पड़े, न ही न्याय और इंसाफ़ के खिलाफ़ है। बल्कि वह दया व रहमत और दिन और दुनिया में गुलामों के फ़ायदों का ख्याल करता है।