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(86) ए अल्लाह! मैं परेशानी और गम से तेरी पनाह चाहता हूँ

297 2020/09/06
(86) ए अल्लाह! मैं परेशानी और गम से तेरी पनाह चाहता हूँ

عَنْ أَبِي سَعِيدٍ الْخُدْرِيِّ – رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ – قَالَ :

دَخَلَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ذَاتَ يَوْمٍ الْمَسْجِدَ، فَإِذَا هُوَ بِرَجُلٍ مِنْ الْأَنْصَارِ يُقَالُ لَهُ: أَبُو أُمَامَةَ، فَقَالَ: "يَا أَبَا أُمَامَةَ، مَا لِي أَرَاكَ جَالِسًا فِي الْمَسْجِدِ فِي غَيْرِ وَقْتِ الصَّلَاةِ؟". قَالَ: هُمُومٌ لَزِمَتْنِي وَدُيُونٌ يَا رَسُولَ اللَّهِ، قَالَ: "أَفَلَا أُعَلِّمُكَ كَلَامًا إِذَا أَنْتَ قُلْتَهُ أَذْهَبَ اللَّهُ عَزَّ وَجَلَّ هَمَّكَ وَقَضَى عَنْكَ دَيْنَكَ؟". قَالَ: قُلْتُ: بَلَى يَا رَسُولَ اللَّهِ، قَالَ: "قُلْ إِذَا أَصْبَحْتَ وَإِذَا أَمْسَيْتَ: اللَّهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ مِنْ الْهَمِّ وَالْحَزَنِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ الْعَجْزِ وَالْكَسَلِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ الْجُبْنِ وَالْبُخْلِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ غَلَبَةِ الدَّيْنِ وَقَهْرِ الرِّجَالِ"، قَالَ: فَفَعَلْتُ ذَلِكَ فَأَذْهَبَ اللَّهُ عَزَّ وَجَلَّ هَمِّي وَقَضَى عَنِّي دَيْنِي".

तर्जुमा: ह़ज़रत अबू सई़द खुदरी बयान करते हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम  मस्जिद में तशरीफ लाए तो क्या देखते हैं कि वहाँ एक अंसारी आदमी हैं जिनका नाम अबू उमामह था। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि ने फ़रमाया:

"ए अबू उमामह! क्या बात है कि मैं तुम्हें मस्जिद में देख रहा हूँ और नमाज़ का समय भी नहीं है?" उन्होंने कहा: "ए अल्लाह के रसूल! मुझे गमों और कर्ज़ों ने घेर लिया है।" तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उनसे फ़रमाया: " क्या मैं तुम्हें ऐसे शब्द ना सिखा दूँ जिन्हें अगर तुम पढ़ो तो अल्लाह ताआ़ला तुम्हारे गम दूर कर दे और तुम्हारे क़र्ज़े अदा कर दे?" ह़ज़रत अबू उमामह कहते हैं कि मैंने कहा: "क्यों नहीं ए अल्लाह के रसूल!" तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "सुबह-शाम ये शब्द पढ़ा करो:

" اللَّهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ مِنْ الْهَمِّ وَالْحَزَنِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ الْعَجْزِ وَالْكَسَلِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ الْجُبْنِ وَالْبُخْلِ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْ غَلَبَةِ الدَّيْنِ وَقَهْرِ الرِّجَالِ"

(अल्लाहुम्मा इन्नी अऊ़ज़ु बिका मिन अल-हम्मि व अल- ह़ुज़्नि व अऊ़ज़ु बिका मिन अल- अ़ज्ज़ी व अल- कस्लि व अऊ़ज़ु बिका मिन अल-जुब्नि व अल-बुख़्लि व अऊ़ज़ु बिका मिन ग़लबत अल- दैनि व क़हरि अल- रिजाली)

यानी ए अल्लाह! मैं तेरी पनाह चाहता हूँ परेशानी और गम से, और तेरी शरण चाहता हूँ अक्षमता और सुस्ती से। और तेरी पना चाहता हूँ कायरता और कंजूसी से। और तेरी पनाह चाहता हूँ क़र्ज़ों और जा़लिमों के (मेरे ऊपर) कब्ज़े से। अबू उमामह बयान करते हैं कि जब मैंनें यह दुआ की तो अल्लाह अल्लाह ने मेरी परेशानियाँ दूर कर दीं और मेरे क़र्ज़े से भी अदा दिए।"

यानी ए अल्लाह पाक! मैं तुझ ही पर भरोसा रखता हूँ। चिंता और गम की बुराई से तेरी ही महानता की शरण में आता हूँ। और तेरी सुरक्षा के ज़रिए उनसे सुरक्षा चाहता हूँ। और तुझसे यह मांगता हूँ कि तू अपनी कु़दरत के ज़रिए चिंता और गम और उनके कारणों को मेरे दिल से दूर कर दे और मेरे सीने को ईमान की रोशनी से भर दे ताकि शैतान अपने वसवसों और संदेहों से मुझे गम में ना डाले और अपनी नापाक कोशिशों से मेरे ईमान को खराब ना कर दे। और ए अल्लाह! इसके अलावा हर वह चीज मांगता हूँ जो तेरे फैसले और भाग्य से राज़ी और संतुष्ट रहने में मेरी मदद करे।

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के प्यारे सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम मस्जिदों और घरों में तन्हाई पसंद करते थे ताकि वे अपने खाली के समय में अल्लाह को याद करें, दुआएं करें और अल्लाह की मखलूक़ में गोर व फिक्र करें। उनमें से जब किसी को कोई गम होता तो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की सुन्नत पर अमल करते हुए नमाज़ की तरफ दौड़ते। क्योंकि बंदा अपने रब से सबसे ज़्यादा नज़दीक सजदे की हालत में होता है।

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इस ह़दीस़ शरीफ में दुआ़ को कलाम यानी बात कहा। इससे इस तरफ इशारा है कि दुआ़ दिल की गहराइयों से होना चाहिए और इस यकी़न के साथ हो कि दुआ़ कबूल होगी। गोया दुआ़ करने वाले को ऐसा लगना चाहिए कि वह अपने दिल, जु़बान बल्कि अपने पूरे तन मन समीत अपने अल्लाह से बात कर रहा है।

हम यहाँ अरबी भाषा के तीन शब्द यानी " अल-ह्म्म, अल- हुज़्न और अल-गम्म" में फर्क बयान करना चाहते हैं जो निम्नलिखित है।

“अल-हम्म” यह आने वाले मामले या खतरे से संबंध रखता है यानी अगर कोई ऐसा मुश्किल मामला होने वाला हो जिसके करने या ना करने से इंसान को कोई गम और दुख हो तो उसे अरबी भाषा में " अल-हम्म" कहते हैं। यानी आने वाली मुसीबत के खतरे की चिंता को "अल-हम्म" कहा जाता है।

"अल-ह़ुज़्न" गुजरे हुए ना पसंदीदा मामले पर इंसान के दिल में जो दुख और गम होता है उसे अरबी भाषा में अल "अल-ह़ुज़्न" कहते हैं जैसे कि किसी दोस्त या रिश्तेदार की मौत हो जाने का गम और दुख या कुछ क़ीमती चीज़ या कुछ पैसे खो जाने का गम और दुख। लिहाज़ा यह गुजरे हुए मामले में सोचने से पैदा होता है। "अल-गम्म" उस मुसीबत को कहते हैं जो इंसान पर कई कारणों से आती है। लिहाज़ा उसकी वजह से इंसान पर हम्म और ह़ुज़्न दोनों जमा हो जाते हैं और फिर उनसे निकलने का उसे कोई रास्ता समझ नहीं आता है।

पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइटIt's a beautiful day