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(100) मैं अल्लाह और उसकी क़ुदरत की पनाह मांगता हूँ उस चीज़ की बुराई से जिसे मैं महसूस कर रहा हूँ और जिसका मुझे खतरा है।
عَنْ عُثْمَانَ بْنِ أَبِي الْعَاصِ الثَّقَفِيِّ، أَنَّهُ شَكَا إِلَى رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ وَجَعًا يَجِدُهُ فِي جَسَدِهِ مُنْذُ أَسْلَمَ فَقَالَ لَهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:
"ضَعْ يَدَكَ عَلَى الَّذِي تَأَلَّمَ مِنْ جَسَدِكَ، وَقُلْ بِاسْمِ اللَّهِ "ثَلَاثًا" وَقُلْ سَبْعَ مَرَّاتٍ: أَعُوذُ بِاللَّهِ وَقُدْرَتِهِ مِنْ شَرِّ مَا أَجِدُ وَأُحَاذِرُ".
: ह़ज़रत उ़समान बिन अबु अल-आ़स सक़फ़ी बयान करते हैं कि उन्होंने अल्लाह के
तर्जुमा रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से अपने बदन के उस दर्द की शिकायत की जिसे वह उस समय से महसूस कर रहे थे जबसे वह इस्लाम लाए थे। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: अपना हाथ दर्द की जगह पर रख कर तीन बार "बिस्मिल्लाह" और सात बार यह दुआ़ पढ़े "
أَعُوذُ بِاللَّهِ وَقُدْرَتِهِ مِنْ شَرِّ مَا أَجِدُ وَأُحَاذِرُ".
(अऊ़ज़ु बिल्लाहि व क़ुदरतिहि मिन शर्रि मा अजिदु व उह़ाज़िरु)
यानी मैं अल्लाह और उसकी क़ुदरत की पनाह मांगता हूँ उस चीज़ की बुराई से जिसे मैं महसूस कर रहा हूँ और जिसका मुझे खतरा है।"
इस ह़दीस़ शरीफ में इस बात का सबूत है कि अपने चाहने वालों से बिना रोए-धोए किसी परेशानी की शिकायत करना जायज़ है कि हो सकता है कि उनसे कुछ तसल्ली मिल जाए या नेक लोगों की बारगाह में भी शिकायत कर सकते हैं कि शायद उनके यहाँ कुछ बरकत नसीब हो जाए या दुआ़एं मिल जाएं या कुछ नसीहत मिल जाए जो परेशानियों और मुश्किलों के बर्दाश्त करने में मददगार साबित हो।
सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की बारगाह में अपनी मुसीबतों की शिकायत करते थे और आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम भी इस पर उनकी कुछ निंदा नहीं करते थे क्योंकि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम जानते थे कि वे लोग रोने-धोने के तौर पर शिकायत नहीं करते हैं बल्कि वे चाहते हैं कि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम जो सबसे बड़े हकीम और डॉक्टर की हैसियत रखते हैं उन्हें जिस्मानी और रूहानी बीमारियों की दवा दें।
उसकी वजह वह मोहब्बत व प्रेम और दया तथा नरमी थी जो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के दिल में उन सह़ाबा ए किराम के लिए मौजूद थी। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम उन पर खुद उनसे ज़्यादा रहम दिल और मेहरबान यानी दयालु थे।
इस दुआ़ को सात बार पढ़ने में कोई राज़ है जिसे हम नहीं जानते लेकिन उसे मानना हम पर जरूरी है। दुआ में बड़ी बीमारियों का इलाज होता हैं।अतः दुआ़ उम्मीद और आरजू पूरी होने का सबसे बड़ा जरिया है। लेकिन दुआ़ पर भरोसा करके बीमारी की दवा लेना छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि दवा भी लेनी चाहिए और दवा लेते समय अल्लाह से दुआ़ करनी चाहिए कि वह अपनी कुदरत से उस दवा को लाभदायक और फायदेमंद बनाए।