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(123) नमाज़ लम्बी करो और भाषण छोटा दो।
عَن أَبي وَائِلٍ شقيق ابن سلمة – قَالَ:
خَطَبَنَا عَمَّارٌ فَأَوْجَزَ وَأَبْلَغَ فَلَمَّا نَزَلَ قُلْنَا: يَا أَبَا الْيَقْظَانِ لَقَدْ أَبْلَغْتَ وَأَوْجَزْتَ - فَلَوْ كُنْتَ تَنَفَّسْتَ!! فَقَالَ إِنِّي سَمِعْتُ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقُولُ: "إِنَّ طُولَ صَلَاةِ الرَّجُلِ وَقِصَرَ خُطْبَتِهِ مَئِنَّةٌ مِنْ فِقْهِهِ، فَأَطِيلُوا الصَّلَاةَ وَاقْصُرُوا الْخُطْبَةَ، وَإِنَّ مِنْ الْبَيَانِ سِحْرًا".
: ह़ज़रत अबू वाईल शक़ीक़ बिन सलमा से उल्लेख है वह कहते हैं कि ह़ज़रत अ़म्मार ने
तर्जुमा हमें भाषण दिया तो बहुत शानदार लेकिन थोड़ा भाषण दिया। जब वह (मिम्बर पर से नीचे) उतर कर आए तो हमने कहा:" ए अबू यक़ज़ान! आपने बहुत शानदार लेकिन थोड़ा भाषण दिया। काश आप अपना भाषण थोड़ा बड़ा कर देते!" तो उन्होंने जवाब दिया कि मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम को सुना कि आपने फरमाया: "आदमी का लम्बी नमाज़ पढ़ना और छोटा भाषण देना उसकी अक्लमंदी और समझदारी का सबूत है। इसीलिए नमाज़ लम्बी करो और भाषण छोटा दो। और कुछ बयान तो जादू होते हैं।"
यकीनन इस्लाम आसानी वाला धर्म है। न इसमें सख्ती और दुश्वरी है और न ही किसी तरह का कोई हर्ज। लिहाज़ा जो इसमें दुश्वारी पैदा करे या अपने ऊपर या लोगों पर किसी मामले में सख्ती करे तो यकीनन इस्लाम अपनी रवादारी और वसतियत (यानी संतुलन और मध्य मार्ग) द्वारा उस पर गालिब आजाएगा जिसमें न तो किसी तरह की ज़्यादती है और न कमी। क्योंकि इस्लाम खुद ही आसानी वाला धर्म है जैसा के हदीस पाक से साफतौर से सबित है। अतः वह अपनी आसानी के द्वारा हर उस व्यक्ति पर ग़ालिब आजाएगा जो उसमें ज़्यादती से काम लेगा या अपने आप या दूसरों को ऐसे कामों के करने को कहेगा जिनके करने की वे ताकत नहीं रखते हैं।
हमारे सामने यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण वसियत है। लिहाज़ा आजकल के भाषण देने वालों को चाहिए कि इसे सामने रखें और इससे सबक हासिल करें और बेसूद लंबे लंबे भाषणों और तकरीरों से बचें और अपने आपको भी सुकून दे और दूसरों को भी चैन पहुंचाएं। क्योंकि उनके बेसूद लंबे लंबे भाषणों से बीमारों, बूढ़ों और जरूरतमंद लोगों को तकलीफ होती है और कभी-कभी तो यात्रियों की सवारी ही छूट जाती है जिसकी वजह से उन्हें सख्त परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जुमा का खुतबा (भाषण) नमाज़ से पहले होता है। लोग वुज़ू करके नमाज़ का इंतजार करते हैं। कुछ लोग पेट के बीमार होते हैं जिसकी वजह से बहुत देर तक इंतजार नहीं कर सकते और मस्जिद में सख्त भीड़ होती है तो न तो वे अपने वुज़ू को रोक सकते हैं और न ही दोबारा वुज़ू करने के लिए जा सकते हैं। तो ऐसी सूरत में वे अब करें भी तो क्या करें?! और भाषण देने वाला अपने भाषण में मगन रहता है। एक टॉपिक से दूसरा टॉपिक। दूसरे से तीसरा। चले ही जाता है। और उन बीमारों और धूप वगैरह में बैठे लोगों का ख्याल नहीं करता है। तो जरा अंदाजा लगाएं कि वह भाषण देने वाला इन मज़लूमों के हक में कितना बड़ा गुनाह करता है!!
इस तरह के भाषण देने वाले लोगों पर ज़ुल्म व अत्याचार करते हैं। नबी करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की सुन्नत का उल्लंघन करते हैं। और नमाज़ से लोगों को भगाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि लोग ऐसे भाषण देने वालों से नफरत करने लगते हैं। उनकी नसीहत नसीहतें भी सुनना पसंद नहीं करते हैं यहाँ तक कि उनकी लम्बी- लम्बी तकरीरों और भाषणों की वजह से जुमा की नमाज़ भी छोड़ देते हैं। भाषण देने वाले को चाहिए कि वह इस वसियत का पालन करे और अपने भाषण के दौरान ऐसी बात करे जो लोगों के मुनासिब हो और जिस टॉपिक या मुद्दे पर बात करना चाहे उसके तत्वों को खूब अच्छी तरह से दिमाग में बिठा ले और उन्हीं के अनुसार भाषण दे। उनसे हरगिज न निकले ताकि लोगों का दिमाग इधर-उधर न भटके। तथा उसे चाहिए कि वह अपने भाषण में कुरान की आयतों और सही़ह़ ह़दीस़ों का प्रयोग करे ताकि वह अपने मकसद में कामयाब हो सके।
भाषण देना या बयानबाजी एक ऐसी कला है जो भावनाओं को उभारने या पिघलाने, लोगों की हालतों को जानकर उनका इलाज करने और ज़्यादा तवज्जो के साथ सुनने वाला मुनासिब समय देखकर उनके मुनासिब बात करने पर आधारित है।