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(124) कोई जज (न्यायाधीश) गुस्से की स्थिति में दो लोगों के बीच फैसला न करे।
عَنْ عَبْدَ الرَّحْمَنِ بْنَ أَبِي بَكْرَةَ قَالَ:
كَتَبَ أَبُو بَكْرَةَ إِلَى ابْنِهِ وَكَانَ بِسِجِسْتَانَ بِأَنْ لَا تَقْضِيَ بَيْنَ اثْنَيْنِ وَأَنْتَ غَضْبَانُ؛ فَإِنِّي سَمِعْتُ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقُولُ: "لَا يَقْضِيَنَّ حَكَمٌ بَيْنَ اثْنَيْنِ وَهُوَ غَضْبَانُ".
: ह़ज़रत अ़ब्दुर्रह़मान बिन अबु बकरह कहते हैं कि अबु बखरह रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने अपने
तर्जुमा बेटे (अ़ब्दुल्लह) को पत्र लिखा और उस समय वह इस सजिस्तान थे कि गुस्से की स्थिति में कभी दो आदमियों के बीच फैसला मत करना। क्योंकि मैंने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से सुना है कि आपने इरशाद फ़रमाया: "कोई जज (न्यायाधीश) गुस्से की स्थिति में दो लोगों के बीच फैसला न करे।"
इसकी वजह यह है कि गुस्से की स्थिति में इंसान अपनी बुद्धि और अपने होश व हवास खो बैठता है जिसके कारण उसे नहीं पता चलता है कि वह क्या कर रहा है। इसीलिए उससे सही फैसले की उम्मीद नहीं की जा सकती। लिहाजा ऐसी स्थिति में वह जज बनने के लायक नहीं होता है। अतः उसे चाहिए कि उस समय तक कोई फैसला न ले जब तक कि पूरे तौर पर उसका गुस्सा खत्म न हो जाए और जब तक वह अपने होश व हवास में न आ जाए। इंसान का गुस्सा जब बहुत बढ़ जाता है तो वह अपनी बुद्धि खो बैठता है जिसके कारण वह पागलों जैसी बातें और काम करता है। इसीलिए ऐसी स्थिति में उसके काम और उसकी बातें उसकी तरफ नहीं की जाती हैं बल्कि उसके गुस्से की तरफ की जाती हैं। लिहाज़ा जज जब गुस्से की हालत में फैसला करेगा तो वह सही फैसला नहीं कर पाएगा। ऐसी स्थिति में उसे चाहिए कि वह अपने फैसले में दोबारा गौर करे जबकि उसे हाकिम या बादशाह ने मुकर्रर किया हो। और अगर उसे खुद लोगों ने ही जज बनाया हो और वह गुस्से की स्थिति में फैसला कर दे तो उसे दोबारा कभी भी जज ना बनाएं। बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति को तलाश करें जिसमें जज बनने की सारी विशेषताएं पाई जाती हों।
और यही हुक्म है उसका जो भुंका-प्यासा हो, या जिसका पैशाब या पाखाना रुक गया हो, या हवा निकलने से रुक गई हो, और जो बहुत गुरबत का मारा हुआ हो और पत्नी और बच्चों के खर्च से परेशान हो।
मेरे प्यारे मुसलमान भाई! बेहतर यही है कि लोगों के बीच फैसला करने के लिए जज उसी समय बना जाए जब कोई दूसरा ना हो और फैसले की सख्त जरूरत हो।