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(130) क्या तुम्हारे साथ लहव (दफ़ बजाने वाला) न था?
عَنْ عَائِشَةَ – رَضِيَ اللَّهُ عَنْهَا – أَنَّهَا زَفَّتْ امْرَأَةً إِلَى رَجُلٍ مِنْ الْأَنْصَارِ فَقَالَ نَبِيُّ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:
"يَا عَائِشَةُ، مَا كَانَ مَعَكُمْ لَهْوٌ؟ فَإِنَّ الْأَنْصَارَ يُعْجِبُهُمْ اللَّهْوُ".
तर्जुमा: ह़ज़रत आ़एशा रद़ियल्लाहु अ़न्हा कहती हैं कि वह एक दुल्हन को (विदा करने) उनके पति एक अंसारी मर्द के पास लेकर गाईं। तो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
"ए आ़एशा! क्या तुम्हारे साथ लहव (दफ़ बजाने वाला) न था? क्योंकि अंसारी को दफ़ पंसद है।"
खुशी का इजहार करने के लिए लोगों के अपने अपने विभिन्न प्रकार के तरीके और आदतें हैं। कुछ तो इस्लाम ने जायज़ करार दिए हैं। और कुछ को नजायज़ कहा है। जबकि उनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनमें से अखलाक़ी या सामाजि बुराइयों को दूर करने के बाद उन्हें जायज़ करार दिया है।
इस्लाम जैसा कि हमें मालूम है फितरत का धर्म है। तो जो फितरत के मुताबिक चीजें होती हैं उनसे इस्लाम मना नहीं करता है बल्कि उन्हें संवार कर जायज़ रखता है। और जो चीज़े फितरत या उसकी जरूरतों के खिलाफ होती हैं या उस पर बुरा असर डालती हैं उन्हें दूर कर देता है। लिहाज़ा जब तक लोग अल्लाह की बनाई हुई अपनी फितरत पर रहेंगे हैं ठीक रहेगें। इसी कारण इस धर्म को फितरत का धर्म कहा जाता है।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का फरमान :" क्या तुम्हारे साथ लहव (दफ़ बजाने वाला) न था?" जा़हिर में तो सवाल है। लेकिन इससे दफ़ बजाने पर उभारना मकसूद है।
ह़दीस़ पाक में "लहव" शब्द आया है। इसका मतलब है दफ़ बजाना या कुछ गाना। इसे "लहव" इसलिए कहा गया है कि लोग इसके द्वारा अपनी खुशी का इजहार करते हैं और आने वाली भलाई की एक दूसरे को खुशखबरी देते हैं।
गुजरी हुई चीजों के अलावा इस ह़दीस़ पाक से यह भी लिया जाता है कि शादी अल्लाह की एक बहुत बड़ी नेमत है। और यह की जायज़ तरीके से इसका इजहार करना इस नेमत पर अल्लाह का शुक्र अदा करना है। लिहाज़ा हर मुसलमान को चाहिए कि वह यही नियत करे ताकि वह इस खुशी के इजहार करने के लिए जो भी कुछ करे उस पर उसे सवाब (पुण्य) मिले। क्योंकि मोमिन अगर अपनी सांसो को भी अल्लाह के रास्ते में खर्च करे तो अल्लाह उन्हें शुमार करता है और उन पर उसे सवाब देता है।
इस ह़दीस़ पाक से यह भी लिया जाता है कि इस तरह के मौकों पर जायज़ खेलकूद मुस्तह़ब (पसंदीदा) है। तो जो उसे नहीं करता वह अपने आप को भी उस जायज़ खेलकूद से आनंद लेने से महरूम रखता है और पति-पत्नी को भी। अतः जीवन में अगर इस तरह की के खुशी के मौके और लम्हे न हों कि जिनमें इंसान कुछ आनंद ले सके तो उसका मानसिक और दिमागी संतुलन ही बिगड़ जाएगा और उसका जीवन तंग होकर रह जाएगा।
लिहाज़ा हम में से हर एक को सख्ती, ज़्यादती और बिना जाने हुए किसी भी चीज़ को जायज़ या नाजायज़ कहने से डरते रहना चाहिए। क्योंकि यह अल्लाह पर झूठ बांधना है जिससे हर एक को बचना चाहिए और तौबा करनी चाहिए।
दफ़ बजा कर और जायज़ चीजे़ गाकर शादी की खुशी का इजहार करने से पति-पत्नी और उनके परिवार वालों के दरमियान मोहब्बत पैदा होती है।और एक लंबे समय तक उनके और खासकर पति-पत्नी के दिमाग में ये यादगार लम्हे रहते हैं।
तथा यह चीज बहुत सी बिमारियों के इलाज का कारण है जो शायद इसी से दूर होती हैं। जैसे कि मानसिक दबाव (repression), अंतर्मुखता (introversion) और आत्म- संदेह (self-doubt) आदि मानसिक बीमारियाँ जिनका इलाज कभी कभी डाक्टर भी नहीं कर पाते हैं।