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(18) जहाँ कहीं भी रहो अल्लाह से डरो।
ह़ज़रत अबु ज़र जुन्दुब बिन जुनादह (अल्लाह उनसे राज़ी हो) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अ़लैहि व सल्लम) से रिवायत करते हैं कि आपने फ़रमाया:
जहाँ कहीं भी रहो अल्लाह से डरो। और बुराई के बाद अच्छाई (अवश्य) कर (जो उस बुराई को मिटादे), और लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो।"
(अह़मद, तिरमिज़ी)
यह वसियत अल्लाह के अधिकार (ह़क़) और उसके बन्दों के अधिकारों दोनों को शामिल है, क्योंकि अल्लाह का उसके बन्दों पर यह अधिकार है कि वे उससे वैसे डरें जैसा कि उससे डरने का ह़क़ है, और तक़वा (डर) की वसीयत अल्लाह ने अगले और पिछले सभी लोगों को की है जहाँ कहीं भी रहो अल्लाह से डरो। तक़वा (डर) का असली मतलब यह है कि बन्दा अल्लाह के आदेशों का पालन करने, और जिन चीज़ों से उसने मना किया है उन से रुकने, और अकेले और सबके सामने उससे सावधान रहने, उसके गुनाहों से डरने और हमेशा उनसे तौबा करने के द्वारा उसके गुस्से (क्रोध) और नाराज़गी से अपने आप की सुरक्षा व हिफ़ाज़त करना जहाँ कहीं भी रहो अल्लाह से डरो। क्योंकि अल्लाह तआ़ला -वह सभी बुराइयों से पाक है- इस बात का सबसे अधिक अधिकार रखता है कि उससे डरा जाए और उसके बन्दों के दिलों में उसकी बढ़ाई और उसका सम्मान हो ताकि वे प्यार व प्रसन्नता से उसकी इ़बादत और उसके आदेशों का पालन करें।
और लोग तक़वा (अल्लाह से डरने) में तरह तरह के होते हैं जैसे कि वे क्षमताओं और योग्यताओं में तरह तरह के होते हैं। तो कुछ लोग तो बस मुसतह़ब (पंसद आने वाला) कार्य करने और नाजायज़ और मकरूह (पंसद ना आने वाला) कार्य से बचते हैं। और कुछ लोग जायज़ चीज़ों को भी छोड़ देते हैं इस डर से कि कहीं किसी नाजायज़ और ह़राम चीज़ में ना पड़ जाएं। और कुछ लोग दुनिया ही से बेपरवाह हो जाते हैं और केवल जीवन के लिए अवश्य चीज़ों को लेते हैं। और तक़वा इन सभी को शामिल है।