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(27) तुम में से कोई भी किसी भी अच्छाई (व भलाई) को कम न समझे।
ह़ज़रत अबु ज़र गि़फ़ारी (अल्लाह उनसे राज़ी हो) से रिवायत है वह कहते हैं:
अल्लाह के रसूल -सल्लल्ललाहु अ़लैहि वसल्लम- ने फ़रमाया: "तुम में से कोई भी किसी भी अच्छाई (व भलाई) को कम ना समझे, अगर उसके पास कुछ ना हो, तो वह अपने (इस्लामी) भाई से मुस्कान भरे चेहरे के साथ मिले, और अगर तुम गोश्त खरीदो या हांडी में कुछ पकाओ तो उसमें शोरबा ज़्यादा कर लो और (उस में से) अपने पड़ोसी को (भी) दो।"
पैगंबर मुह़म्मद -सल्लल्ललाहु अ़लैहि व सल्लम- की उदारता व सख़ावत न थमने वाली उस हवा की तरह ही जो जिस जगह भी चलती है सबको लाभ देती है, वह किसी भी मांगने वाले को खाली हाथ वापस नहीं लोटाते थे, जब भी किसी ज़रूरतमंद को देखते तो उसकी मदद करते, यह आपकी आ़दत थी इसके लिए आप मजबूर ना थे, क्योंकि आप स्वयं भी सख़ी थे और सख़ावत करने वालों के बेटे थे, सख़ावत व उदारता के इस मैदान में आप बेमिसा़ल हैं, आपकी सख़ावत के बादलों की गिनती नही हो सकती। आप अपनी तंगदस्ती व नाज़ुक स्थिति में भी अपने अनुयायियों व साथियों को वह चीज़ दे देते थे जिसकी आपको स्वयं बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। आपकी परोपकारिता निःस्वार्थता एक कहावत बन गई है, बल्कि लोगों में आपकी निःस्वार्थता की कोई मिस़ाल नहीं है। इन्सानी तारीख में इस मैदान में कोई भी आपकी मिसा़ल नहीं मिल सकती। इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अ़लैहि व सल्लम) अपने साथियों को यह वसीयत करते थे कि हर कोई अपनी ताक़त के हिसाब से सभी अच्छे कामों में आपकी नक़्ल करे, और अपने दिल में यह ना सोचे: " मेरा किसी को थोड़ी चीज़ देना मुझे कैसे फ़ायदा देगा? मैं केवल एक निवाला उसे दे रहा हूं, जिससे उसकी भूंक नहीं मिट सकती, या थोड़ा सा कपड़ा दे रहा हूं इससे उसका बदन भी नहीं छुप सकता।" क्योंकि जो इस तरह सोचता है और अपनी इस सोच का पालन करता है वह कुछ भी किसी को नहीं दे पाता है, और फिर वह लालच और कंजूस हो जाता है और शैतान उसे केवल लेने के लिए कहता है और दुसरों को देने से मना करता है।