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(141) जिसने भी अपने किसी भाई पर अत्याचार किया हो (या उसका अधिकार मारा हो) तो उसे चाहिए कि उससे (इस दुनिया में ही) माफ कराले।
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ – رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ – أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:
"مَنْ كَانَتْ عِنْدَهُ مَظْلِمَةٌ لِأَخِيهِ فَلْيَتَحَلَّلْهُ مِنْهَا؛ فَإِنَّهُ لَيْسَ ثَمَّ دِينَارٌ وَلَا دِرْهَمٌ مِنْ قَبْلِ أَنْ يُؤْخَذَ لِأَخِيهِ مِنْ حَسَنَاتِهِ، فَإِنْ لَمْ يَكُنْ لَهُ حَسَنَاتٌ أُخِذَ مِنْ سَيِّئَاتِ أَخِيهِ فَطُرِحَتْ عَلَيْهِ".
तर्जुमा: ह़ज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:"जिसने भी अपने किसी भाई पर अत्याचार किया हो (या उसका अधिकार मारा हो) तो उसे चाहिए कि उससे (इस दुनिया में ही) माफ कराले। इसलिए कि आखिरत में रूपए-पैसे नहीं होंगे। इससे पहले (माफ कराले) कि उसके मज़लूम भाई को उसकी नेकियों में से अधिकार दिलाया जाए और अगर उसके पास नेकियाँ न होंगी तो उस (मज़लूम) भाई की बुराइयाँ उस पर डाल दी जाएंगी।"
ऐसा लगता है कि दुनिया को रुखसत कहने वाले व्यक्ति की यह वसियत है जो अपने अंदर बड़ी महत्वपूर्ण और ऐसी चीजें लिए हुए है जिनका ख्याल रखना बहुत जरूरी है। लेकिन इंसान अल्लाह से दूरी, दुनिया से बहुत ज्यादा लगाओ, अपनी ख्वाहिश और स्वार्थ की वजह से उन्हें भूल जाता है या फिर भुला देता है। उन्हीं चीजों में से एक मोमिनो के दरमियान सच्चा भाईचारा और उससे संबंधित अधिकार हैं जिनको अदा करना जरूरी है। तथा उससे संबंध कुछ आदाब भी हैं जिनका ख्याल करना और जिनकी सुरक्षा करना जरूरी है।
उन्हीं चीजों में से मुसलमान और गैर मुसलमान सभी लोगों के बीच न्याय को स्थापित करना, उन नियमों को पहचानना जिन पर वह आधारित है और बेहतर तरीके से उसको लागू करना भी है ताकि इस धरती पर बसने वाले सभी लोगों के बीच अमन और शांति कायम रहे।
उन्हीं चीजों में से यह भी है कि जब कोई व्यक्ति अपने भाई के हक में कोई गलती कर दे तो उसके लिए जरूरी है कि वह उससे माफी मांगे और जहाँ तक हो सके भलाई से उसका बदला दे। और अगर यह नहीं कर सकता तो सम्मान और अदब व एहतराम के साथ माफी ही मांग ले।
ज़ुल्म अ़रबी भाषा का शब्द है। इसके के माना है किसी चीज को उसके अलावा की जगह में रखना। और यही माना रोकने यह कमी करने का है। ज़ुल्म (अत्याचार या अंधेरा) को ज़ुल्म इसलिए कहा जाता है कि वह अंधेरे की तरह होता है। क्योंकि हक़ीक़त को छुपाया जाता है और अधिकारों को नष्ट किया जाता है।
ह़दीस़ शरीफ में " मज़लिमह" का शब्द आया है जो कि अ़रबी भाषा का शब्द है। इसके माना हैं अत्याचार।और अत्याचार दो तरह का होता है:
एक भौतिक अत्याचार: यह पैसों या सामान वगैरह निजी चीज़ों में होता है।
दूसरा आध्यात्मिक अत्याचार: यह इज्जत व आबरू, सम्मान और उन आदतों में होता है जिनमें हर किसी को सम्मान और आज़ादी (स्वतंत्रता) के मामले में उसका अधिकार देना लाजमी होता है। और उन जैसे अन्य अधिकारों में जिन को खरीदा नहीं जा सकता बल्कि उनको अदा करना जरूरी है।