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(150) मुझे मेरे जानी-दोस्त (नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम) ने तीन चीजों की वसियत की: हर महीने में तीन दिन रोज़े रखना, चाशत की दो रकात नमाज पढ़ना और सोने से पहले वित्र की नमाज़ पढ़ना।
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ:
"أَوْصَانِي خَلِيلِي صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ بِثَلَاثٍ بِصِيَامِ ثَلَاثَةِ أَيَّامٍ مِنْ كُلِّ شَهْرٍ، وَرَكْعَتَيْ الضُّحَى، وَأَنْ أُوتِرَ قَبْلَ أَنْ أَرْقُدَ"
तर्जुमा: ह़ज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु कहते हैं: "मुझे मेरे जानी-दोस्त (नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम) ने तीन चीजों की वसियत की: हर महीने में तीन दिन रोज़े रखना, चाशत की दो रकात नमाज पढ़ना और सोने से पहले वित्र की नमाज़ पढ़ना।"
जाहिर है कि यह वसियत खासतौर पर हजरत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु के लिए ही नहीं है बल्कि तमाम मोमिन पुरुषों और महिलाओं के लिए भी है जो ह़ज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु के द्वारा हम तक पहुंची है।
यह उन वसियतों में से एक है जिनके द्वारा मुसलमान, हिम्मत व हौसला, अल्लाह के लिए काम करने में अपने आप को मजबूत करना, और ना पसंदीदा काम करने पर नफ्स को सुधाना सीखाता है। ताकि उसे सुधारे, बेहतर व्यवहार करने पर उसकी आदत डाले और ख्वाहिशों, सुस्ती की तरफ जाने और काम के समय में लापरवाही बरतने से उसे फटकारे।
हर महीने में तीन रोज़े रखना एक ऐसी सुन्नत है जिसको नेक लोग हमेशा करते चले आए हैं और जिसे बिना कारण कभी नहीं छोड़ा है। लिहाज़ा शाअबान के महीने के अलावा सभी महीनों में कम से कम तीन रोज़े रखना मुस्ताहब है जबकि शाअबान के महीने में मुस्ताहब यह है कि उसमें दूसरे महीनों से अधिक रोज़े रखे। और याद रहे कि हर महीने में तीन रोज़े रखना उम्र भर रोजे रखने के बराबर है।
और यह भी जान लें कि सवाब इमानदारी और नेक नियती के हिसाब से मिलता है। लिहाज़ा कभी छोटे से काम पर भी बहुत ज्यादा सवाब मिल जाता है और कभी बहुत बड़े काम पर भी कुछ सवाब नहीं मिलता या बहुत कम मिलता है।
चाशत की दो रकात नमाज़ की बड़ी फज़ीलत आई है जैसा कि उनका बहुत ज्यादा सवाब है। क्योंकि यह ऐसी नमाज़ है जिसे अक्सर लोग दुनियावी कामों में व्यस्त रहने की वजह भूले रहते हैं। लिहाज़ा यह सवाब के मामले में रात की नमाज़ (तहज्जुद की नमाज़) की तरह है। क्योंकि वह भी ऐसे ही समय में पढी़ जाती है जबकि लोग सोए होते हैं। लिहाज़ा अक्सर दोनों ही में ईमानदारी व नेक नियती होती है। और सवाब इमानदारी व नेक नियती के हिसाब से ही मिलता है।
चाशत की नमाज़ का समय एक या दो भालों के बराबर सूरज बुलंद होने से शुरू होता है और ज़ोहर का समय शुरू होने से पहले यानी ज़वाल के समय खत्म होता है।
चाशत की नमाज कम से कम दो रकात है और ज्यादा से ज्यादा बारह। लिहाज़ा जो चाहे दो ही पढ़ ले और जो चाहे पूरी बारह पड़े।
याद रखें कि चाशत की नमाज़ बार-बार तौबा करने, काम में सही और अच्छी नियत करने, उसमें इमानदारी पैदा करने और लापरवाही दूर करने और ख्वाहिश को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए बड़ी सहायक है।
रही वित्र की नमाज़ तो यह सुन्नते मोअक्किदा (ऐसी सुन्नत जिस पर बहुत ज़ोर दिया गया हो।) है। (हमारे यानी इमाम आ़ज़म अबू ह़नीफा के यहाँ यह वाजिब व ज़रूरी है। ) लिहाज़ा मुसलमान को इसे छोड़ना नहीं चाहिए। इस पर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है जिसकी वजह से यह वाजिब (अनिवार्य) के करीब है। (बल्कि हमारे यहाँ वाजिब है।) लिहाज़ा हर मुसलमान की जिम्मेदारी है कि वह के सोने से पहले इसे जरूर पढ़े और कभी न छोड़े।
वास्तव में यह वसियत वित्र की नमाज़ से संबंधित है सोने से पहले पढ़ी जाए या बाद में। और हर व्यक्ति अपने हिसाब को बेहतर जानता है लिहाज़ा उस पर अमल करे जिसमें उसकी बेहतरी हो।
वित्र की नमाज़ का समय ईशा की नमाज़ से लेकर फज्र के उगने तक रहता है। अक्सर मुसलमान इसे ईशा की नमाज़ के बाद ही पढ़ लेते हैं।
जो शुरू रात में ही वित्र पढ़ ले फिर वह अधिक नमाज़ पढ़ना चाहे तो जो चाहे नमाज़ पढ़े। और अक्सर उ़लमा के नजदीक यह है कि वह दोबारा वित्र न पढ़े। क्योंकि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "एक ही रात में दो वित्र की नमाज़ें नहीं।"