1. फोटो एल्बम
  2. (174) लोगों की इमामत वह करे जो उनमें अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का ज़्यादा जानकार हो।

(174) लोगों की इमामत वह करे जो उनमें अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का ज़्यादा जानकार हो।

295 2020/10/04
(174) लोगों की इमामत वह करे जो उनमें अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का ज़्यादा जानकार हो।

عَنْ أَبِي مَسْعُودٍ (عقبة بن عمرو البدري) الْأَنْصَارِيِّ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: "يَؤُمُّ الْقَوْمَ أَقْرَؤُهُمْ لِكِتَابِ اللَّهِ، فَإِنْ كَانُوا فِي الْقِرَاءَةِ سَوَاءً فَأَعْلَمُهُمْ بِالسُّنَّةِ، فَإِنْ كَانُوا فِي السُّنَّةِ سَوَاءً فَأَقْدَمُهُمْ هِجْرَةً، فَإِنْ كَانُوا فِي الْهِجْرَةِ سَوَاءً فَأَقْدَمُهُمْ سِلْمًا، وَلَا يَؤُمَّنَّ الرَّجُلُ الرَّجُلَ فِي سُلْطَانِهِ، وَلَا يَقْعُدْ فِي بَيْتِهِ عَلَى تَكْرِمَتِهِ إِلَّا بِإِذْنِهِ".

तर्जुमा: ह़ज़रत अबू मसऊ़द (उ़क़बा बिन अ़म्र बद्री) रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "लोगों की इमामत वह करे जो उनमें अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का ज़्यादा जानकार हो। अगर कुरान के पढ़ने (ज्ञान) में वे सब बराबर हों तो वह (नमाज़ पढ़ाए) जो उनमें ह़दीस़ का ज्यादा जानकार हो। अगर वे ह़दीस़ के ज्ञान में भी बराबर हों तो वह जिसने उन सब में हिजरत पहले की हो। अगर वे हिजरत में भी बराबर हों तो वह जो इस्लाम पहले लाया हो। और कोई आदमी किसी दूसरे की वहाँ इमामत न करे जहाँ उसका आदेश चलता हो और न उसकी इजाजत के बिना उसके घर में उसकी सम्मान की जगह पर बैठे।"

नमाज़ की इमामत हुक्मरानी की इमामत की तरह नहीं है। क्योंकि नमाज़ के इमाम की शान यह है कि वह अल्लाह के यहाँ अपने मुक़तदियों का सिफारशी होता है और सिफारशी के लिए जरूरी है कि उसमें ज्ञान हो, अच्छे अखलाक वाला हो, उसमें तक़वा व परहेज़गारी और इस्लाम लाने या नेक काम करने में जल्दी करने वाली जैसी सिफारिश की महान विशेषताएं मौजूद हों।

नमाज़ की इमामत इमाम से यह तकाज़ा करती है कि जो लोग उसके पीछे नमाज़ पढ़ते हैं उन्हें यह पसंदीदा और प्यारा होना चाहिए। और इमाम पसंदीदा और प्यारा उसी समय हो सकता है जबकि उसके अखलाक अच्छे हों, क़ुरआन और ह़दीस़ का सही ज्ञान रखता हो और अपने मुक़तदियों से मोहब्बत करता हो।

याद रहे कि इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि कोई सह़ाबी क़ुरआन का तो जानकार हो लेकिन ह़दीस़ का पूरा ज्ञान न रखता हो। क्योंकि बहुत से सह़ाबा ए किराम ऐसे भी थे जो क़ुरआन के ज्ञान में व्यस्त होने के कारण नबी करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की ह़दीस़ों को याद नहीं कर पाते थे और न उनमें गोर-फिक्र कर पाते थे। (लेकिन याद रहे कि आज के जमाने में पूरे क़ुरआन का सही ज्ञान उसी को होगा जो ह़दीस़ का भी ज्ञान रखता हो। बिना ह़दीस़ के ज्ञान के क़ुरआन का सहीह ज्ञान हासिल नहीं हो सकता है।) और बेशक क़ुरआन और ह़दीस़ दोनों का ज्ञान हासिल करना उनमें से किसी एक के ज्ञान हासिल करने से बेहतर है।

इस्लाम रवादारी और आसानी का धर्म है। यह अपने मानने वालों को अच्छाई अपनाने पर उभारता है भले ही वह कहीं भी हो और बुराई से बचने का आदेश देता है चाहे वह कहीं भी पाई जाए। तथा उन्हें कोमलता, आपस में इत्तेफाक, प्यार व मोहब्बत, एक दुसरे की मदद और मुख्तलिफ मौकों पर खासकर नमाज़ में नेकी और भलाई पर इकट्ठा होने की तरफ बुलाता है।

पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइटIt's a beautiful day