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(175) अल्लाह के ज़िक्र के अलावा ज़्यादा मत बोला करो।
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عَنْ ابْنِ عُمَرَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: لَا تُكْثِرُوا الْكَلَامَ بِغَيْرِ ذِكْرِ اللَّهِ؛ فَإِنَّ كَثْرَةَالْكَلَامِ بِغَيْرِ ذِكْرِ اللَّهِ تَعَالَى قَسْوَةٌ لِلْقَلْبِ، وَإِنَّ أَبْعَدَ النَّاسِ مِنْ اللَّهِ الْقَلْبُ الْقَاسِي".
तर्जुमा: ह़ज़रत इब्ने उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हुमा बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "अल्लाह के ज़िक्र के अलावा ज़्यादा मत बोला करो। क्योंकि ज़्यादा बोलने से दिल सख्त (कठोर) हो जाता है और सब लोगों में अल्लाह से सबसे ज़्यादा दूर सख्त दिल वाला होता है।"
अल्लाह के ज़िक्र के अलावा ज्यादा बोलना बेकार बात है न उसमें कोई भलाई है और न ही कोई फायदा। यह एक बोझ है जिसे इंसान अपने कंधों पर लादता फिरता है और बिना वजह गुनाह कमाता है और जिसकी वजह से इंसान जिंदगी भर चोट खाता है।
लिहाज़ा जो आदमी कुछ बोलना चाहे तो खूब सोच समझकर और अपनी जबान को काबू में रख कर बोले और बिना सोचे समझे कोई शब्द भी अपने मुंह से न निकाले। क्योंकि उसके हर शब्द पर नजर होती है। जब एक बार वह जबान से निकल जाता है तो वापस नहीं आता और कभी-कभार तो उससे माफी मांगना भी कुछ फायदा नहीं देता।
अल्लाह दया करे उस आदमी पर जो बोले तो फायदे में रहे या खामोश रहे तो बचा रहे।
लिहाज़ा सबसे बेहतर वह है जो सोच समझकर मुनासिब जगह पर अदब और सम्मान का ख्याल रखते हुए सिर्फ इतनी ही बात करे जिससे उसका मकसद पूरा हो जाए।
इस वसियत में नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम हमें इस बात से चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी कोई भी बातचीत अल्लाह के ज़िक्र से खाली हो चाहे वह बातचीत कम हो या ज़्यादा। क्योंकि अल्लाह का ज़िक्र बातचीत को खूबसूरत बनाता है, उसकी सुंदरता में ज़्यादती करता है, उसके सम्मान में ज़्यादती करता है, बोलने वाले के दिल में अल्लाह का डर बढ़ाता है जिससे उसके अंदर अल्लाह के आदेश की आज्ञा का पालन करने का जज्बा बढ़ जाता है और अल्लाह उसकी बात में भी बरकत फरमाता है तथा बातचीत के बीच जो गलतियाँ हो जाती हैं अल्लाह के ज़िक्र से उनका कफ्फारा अदा हो जाता है जिससे वह गलतियाँ माफ हो जाती हैं।
तथा अल्लाह का ज़िक्र कठोर दिलों को नरम बनाता है, तंग सीनों को चौड़ा करता है, बुद्धि के लिए सोच विचार के रास्ते खोलता है और इस बड़ी कायनात में अल्लाह की एकता और उसकी संपूर्ण कुदरत और ताकत पर बिखरे सबूतों को पहचानने में उसकी सहायता करता है।
अल्लाह के ज़िक्र से दिल नरम होता है और अगर उसे छोड़ दिया जाए तो वह कठोर यानी सख्त हो जाता है। इंसान की ज़िक्र की मजलिसों (सभाओं) से जितना दूर होता जाता है उसका दिल उतना ही ज्यादा सख्त होता जाता है यहाँ तक कि वह पत्थर से भी ज्यादा कठोर हो जाता है कि जिसके बाद उसका सुधारअसंभव हो जाता है। फिर वह मुर्दा हो जाता है और कभी जिंदा नहीं होता।
अल्लाह का ज़िक्र ऐसी हमेशा रहने वाली नेमत है जिसके कोई इस दुनिया की या परलोक की नेमत बराबर नहीं हो सकती। लेकिन अफसोस उस आदमी पर जो अल्लाह के ज़िक्र और उसकी याद से गाफिल बना रहा। क्योंकि वह गाफिल ही बना रहेगा यहाँ तक कि उसके पास मौत आ जाएगी। फिर वह ऐसे समय में होश में आएगा जबकि उसका होश में आना उसे कुछ फायदा न देगा और ऐसे समय वह शर्मिंदा होगा जबकि उसका शर्मिंदा होना उसे कुछ काम न आएगा। अल्लाह की याद से गाफिल आदमी धुतकारे शैतान की तरह है जिसके पास न कोई दिल होता है और न कोई ज़मीर और जिसे न नसीहत फायदा देती है और न डांट-फटकार।