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(177) मैं आपके पास हिजरत करने पर बैअ़त करने (निष्ठा की शपथ) के लिए आया हूँ और अपने माता-पिता को रोता हुआ छोड़ आया हूँ।

220 2020/10/04
(177) मैं आपके पास हिजरत करने पर बैअ़त करने (निष्ठा की शपथ) के लिए आया हूँ और अपने माता-पिता को रोता हुआ छोड़ आया हूँ।

عَبْدِ اللَّهِ بْنِ عَمْرٍو بْنِ العاص رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا قَالَ: جَاءَ رَجُلٌ إِلَى رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَ: جِئْتُ أُبَايِعُكَ عَلَى الْهِجْرَةِ، وَتَرَكْتُ أَبَوَيَّ يَبْكِيَانِ، فَقَالَ: "ارْجِعْ عَلَيْهِمَا فَأَضْحِكْهُمَا كَمَا أَبْكَيْتَهُمَا".

तर्जुमा: ह़ज़रत अ़ब्दुल्लह बिन अ़म्र बिन आ़स रद़ियल्लाहु अ़न्हुमा बयान करते हैं कि एक आदमी नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास आकर बोला: "मैं आपके पास हिजरत करने पर बैअ़त करने (निष्ठा की शपथ) के लिए आया हूँ और अपने माता-पिता को रोता हुआ छोड़ आया हूँ।" तो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:"तुम उनके पास वापस जाओ और जिस तरह तुम ने उन्हें रुलाया है उसी तरह हंसाओ।"

मक्का से मदीना हिजरत करना हर मुसलमान के लिए जरूरी था जो उसके खर्च आदि के बर्दाश्त करने की क्षमता रखता था। दूसरी बैअ़त अ़क़बह के बाद इस हिजरत का दरवाजा खुला। यह वाकिया नबुव्वत के एलान के तकरीबन तेराह साल बाद का है। और यह दरवाजा मक्के की विजय तक खुला रहा यहाँ तक की विजय मक्का के दिन नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि: "(मक्के की) विजय के बाद कोई हिजरत नहीं बल्कि जिहाद और नियत है।"

अंसार ने ए नबी करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से इस बात पर बैअ़त की थी कि अगर आप मक्के से हिजरत करके उनके पास मदीने चले गए तो वे लोग आपका समर्थन करेंगे और आपकी दुश्मनों से इस तरह हिफाजत करेंगे जैसे कि वे अपनी जानों, बच्चों और महिलाओं की हिफाजत करते हैं। लिहाज़ा बहुत से सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम के हिजरत करने के बाद नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम भी हिजरत करके मदीने तशरीफ ले गए।

एक आदमी नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास आया ताकि हिजरत करने पर आप से बैअ़त करे जैसा कि बहुत से सह़ाबा ए किराम ने की थी। तो उसने कहा: ए अल्लाह के रसूल! "मैं आपके पास हिजरत करने पर बैअ़त करने (निष्ठा की शपथ) के लिए आया हूँ और अपने माता-पिता को रोता हुआ छोड़ आया हूँ।"इस आखिरी जुमले से नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पर बड़ा असर हुआ जिससे आपके अंदर की भावनाएं उभर आईं और उस आदमी से दिल की आवाज सुनकर इरशाद फ़रमाया:"तुम उनके पास वापस जाओ और जिस तरह तुम ने उन्हें रुलाया है उसी तरह हंसाओ।" इसका मतलब है कि पूरे दिल और दिमाग और अपने वजूद के साथ उनके पास वापस जाओ और हर तरह से उनके साथ नरमी और मेहरबानी से व्यवहार करो और उन्हें मनाओ यहाँ तक कि वे तुमसे राजी और खुश हो जाएं। फिर अगर वे तुम्हें हिजरत की इजाजत दें तो फिर आना।

इस वसियत से चंद फायदे हासिल होते हैं:

पहला: अदब व सम्मान यह है की औलाद को चाहिए कि वह जो भी काम करने जा रही है पहले उसमें अपने माता-पिता की मर्जी पूंछे।

(दूसरा) यह भी अदब है कि जब भी माता-पिता दुखी दिखें तो उनके दुख को दूर करे और उनकी हमेशा देखभाल करे। क्योंकि जिस तरह वह उनके आर्थिक हालातों का जिम्मेदार है इसी तरह वह उनके मानसिक हालातों का भी जिम्मेदार है।

याद रहे कि इस्लाम हमेशा हकदार को पूरे तौर पर उसका पूरा अधिकार दिलाने की हमेशा कोशिश में रहता है। और माता-पिता का औलाद पर अधिकार है जिसे ताकत के हिसाब से अदा करना जरूरी है। इसी तरह औलाद का भी माता-पिता पर अधिकार है जिसे उन पर अदा करना जरूरी है।

प्रिय पाठकों! इस इस्लाम धर्म में न्याय और इंसाफ का संतुलन यह है कि यह आदमी को उतने अधिकार भी देता है जितनी उसे जिम्मेदारियाँ देता है। और यदि दो ज़िम्मेदारियाँ टकरा जाएं तो जो बड़ी व महत्वपूर्ण हो उसे आगे रखता है।

 

पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइटIt's a beautiful day