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(180) बेशक अल्लाह तुम्हारे लिए तीन चीजें पसंद करता और तीन चीजें नापसंद करता है।
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: "إِنَّ اللَّهَ يَرْضَى لَكُمْ ثَلَاثًا وَيَكْرَهُ لَكُمْ ثَلَاثًا: فَيَرْضَى لَكُمْ أَنْ تَعْبُدُوهُ، وَلَا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا، وَأَنْ تَعْتَصِمُوا بِحَبْلِ اللَّهِ جَمِيعًا وَلَا تَفَرَّقُوا، وَيَكْرَهُ لَكُمْ: قِيلَ وَقَالَ، وَكَثْرَةَ السُّؤَالِ، وَإِضَاعَةِ الْمَالِ".
तर्जुमा: ह़ज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:"बेशक अल्लाह तुम्हारे लिए तीन चीजें पसंद करता और तीन चीजें नापसंद करता है। वह तुम्हारे लिए पसंद करता है कि: तुम उसकी इबादत (पूजा) करो, उसके साथ किसी को शरीक (साझेदार) न बनाओ और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और बिखरो मत। और वह तुम्हारे लिए नापसंद करता है: गपशप (फिज़ूल बातें), बहुत ज़्यादा पूछताछ और धन की बर्बादी।"
अल्लाह के ह़क में पंसद करने और नापसंद करने का मतलब है:आदेश देना और मना करना। या सवाब और सज़ा देना।
याद रखें कि अल्लाह की सिफ़तो (विशेषताओं) का ऐसा माना व मतलब समझना चाहिए जो अल्लाह की शान के लायक हो और उसमें उसका किसी तरह का अपमान न हो।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का यह कहना: "बेशक अल्लाह तुम्हारे लिए तीन चीजें पसंद करता और तीन चीजें नापसंद करता है।" सिमीत तौर पर नहीं है। यह केवल नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने विशेष तौर पर इरशाद फ़रमा दिया। वरना तो अल्लाह हमारे लिए हर वह चीज पसंद करता है जिसमें हमारी दुनिया और आखिरत की कामयाबी और भलाई हो। और ऐसी बहुत सी चीजें हैं। क्योंकि ईमान की सत्तर और कुछ शाखाएं हैं और हर शाखा के तहत अनगिनत खूबियाँ हैं। लेकिन नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने केवल तीन चीजों का ज़िक्र किया ताकि यह चीजें सुनने वाले को आसानी से अच्छी तरह याद हो जाएं और ठीक तरह से उसके दिमाग में बैठ जाएं।
इनमें से सबसे पहली चीज है: अल्लाह की इबादत करना: इसका मतलब है उसके आदेश और निषेध में उसकी आज्ञा का पालन करना, उसके आगे अपना सर झुका लेना, उसकी सम्मानता के सामने झुकना और अपनी सभी हालातों में उसके सामने अपनी मोहताजी और कमजोरी जाहिर करते हुए उससे सहायता मांगना।
दूसरी चीज है: उसके साथ किसी को शरीक (साझे) न करना। यानी बंदे को चाहिए कि वह पूरी ईमानदारी के साथ केवल उसी की रजामंदी पाने के लिए उसकी इबादत करे और हर काम करे।
उनमें तीसरी चीज है: अल्लाह की रस्सी को मजबूती से थाम लेना यानी मज़बूती से क़ुरआन और ह़दीस़ की आज्ञा का पालन करना।
इस्लामी एकता एक मुश्किल काम है लेकिन यह जिंदगी और धार्मिक रास्ते की जरूरत है। इस्लामी एकता के लिए काम करना बड़े ही सम्मान की बात है जबकि इसमें अल्लाह पर ईमान, उस पर पूरा भरोसा, क़ुरआन और सुन्नत की आज्ञा का पालन, मौजूदा समय और उसकी ज़रूरतों की पूरी जानकारी, और जीवन की सभी शाखाओं की साथ समझ शामिल हो।
याद रखें कि जो अल्लाह के ज़िक्र और उसकी याद से गाफिल रहता है वह लोगों के ऐब ढूंढने, उनके सम्मान को तार-तार करने, उनकी चुगली करने और उनके बिच चुगली और फितना व फसाद फैलाने जैसे जाहिलों व बेवकूफ़ो वाले कामों में पड़ा रहता है।
प्यारे भाई! सबसे बेहतर वह आदमी है जो हर ऐसी चीज से दूर रहे जो न उसके धर्म के काम की हो और न ही दुनिया के काम की हो। क्योंकि ऐसी चीजों में पढ़ना एक तरह की मूर्खता और बेवकूफी है।
इसी तरह वह आदमी भी सबसे बेहतर है जो अपना धन दिल खोलकर अल्लाह के रास्ते में खर्च करे, लोगों के पास जो हो उसकी ख्वाहिश न करे और सिर्फ फायदेमंद ही बात पूछे और करे।
लब्बोलुआब यह है कि संपूर्ण तौह़ीद (अल्लाह को एक मानना) सभी सिद्धांतों की असल है। और यह कि मुसलमान उस समय तक एक नहीं हो सकते जब तक कि वे क़ुरआन और ह़दीस़ को मजबूती से न थाम लें और हर उस चीज को न छोड़ दें जो न उनके धर्म के काम की हो और न दुनिया के काम की हो।