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(185) कोई घड़ी किसी तरह की होती है और कोई किसी तरह की। (समय-समय की बात है।)
عَنْ حَنْظَلَةَ الْأُسَيِّدِيِّ قَالَ (وَكَانَ مِنْ كُتَّابِ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ) قَالَ: لَقِيَنِي أَبُو بَكْرٍ فَقَالَ: كَيْفَ أَنْتَ يَا حَنْظَلَةُ؟! قَالَ: قُلْتُ: نَافَقَ حَنْظَلَةُ. قَالَ: سُبْحَانَ اللَّهِ! مَا تَقُولُ؟، قَالَ: قُلْتُ: نَكُونُ عِنْدَ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُذَكِّرُنَا بِالنَّارِ وَالْجَنَّةِ حَتَّى كَأَنَّا رَأْيُ عَيْنٍ، فَإِذَا خَرَجْنَا مِنْ عِنْدِ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، عَافَسْنَا الْأَزْوَاجَ وَالْأَوْلَادَ وَالضَّيْعَاتِ فَنَسِينَا كَثِيرًا. قَالَ أَبُو بَكْرٍ: فَوَاللَّهِ، إِنَّا لَنَلْقَى مِثْلَ هَذَا.فَانْطَلَقْتُ أَنَا وَأَبُو بَكْرٍ حَتَّى دَخَلْنَا عَلَى رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ. قُلْتُ: نَافَقَ حَنْظَلَةُ يَا رَسُولَ اللَّهِ! فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: "وَمَا ذَاكَ؟" قُلْتُ: يَا رَسُولَ اللَّهِ، نَكُونُ عِنْدَكَ تُذَكِّرُنَا بِالنَّارِ وَالْجَنَّةِ. حَتَّى كَأَنَّا رَأْيُ عَيْنٍ. فَإِذَا خَرَجْنَا مِنْ عِنْدِكَ عَافَسْنَا الْأَزْوَاجَ وَالْأَوْلَادَ وَالضَّيْعَاتِ. نَسِينَا كَثِيرًا .فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: وَالَّذِي نَفْسِي بِيَدِهِ، إِنْ لَوْ تَدُومُونَ عَلَى مَا تَكُونُونَ عِنْدِي، وَفِي الذِّكْرِ، لَصَافَحَتْكُمْ الْمَلَائِكَةُ عَلَى فُرُشِكُمْ وَفِي طُرُقِكُمْ. وَلَكِنْ يَا حَنْظَلَةُ، سَاعَةً وَسَاعَةً" ثَلَاثَ مَرَّاتٍ.
तर्जुमा: ह़ज़रत ह़ंज़लह रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं - वह नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के लेखकों में से थे।- वह कहते हैं:" ह़ज़रत अबू बक्र रद़ियल्लाहु अ़न्हु मुझसे मिले और कहा: "ऐ ह़ंज़लह! आप कैसे हैं?" वह कहते हैं: मैंने कहा: "ह़ंज़लह मुनाफिक (दो रुखा) हो गया है।" ह़ज़रत अबू बक्र रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने कहा:" सुबह़ानल्लह! क्या कह रहे हो?" कहते हैं कि मैंने कहा: "हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास होते हैं तो वह हमें जन्नत और जहन्नुम की याद दिलाते हैं तो ऐसा लगता है कि हम उन्हें अपनी आंखों से देख रहे हैं। और फिर जब हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास से निकल आते हैं तो पत्नियों, बच्चों और खेती-बाड़ी (और दूसरे कामों) को संभालने में लग जाते हैं और बहुत सी चीजें भूल जाते हैं।" ह़ज़रत अबू बक्र रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने कहा: "ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी होता है।" वह कहते हैं कि फिर मैं और ह़ज़रत अबू बक्र चल पड़े और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास आए। मैंने कहा: "ऐ अल्लाह के रसूल! ह़ंज़लह मुनाफिक हो गया है?" अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया:"वह कैसे?" मैंने कहा: "ऐ अल्लाह के रसूल! हम आपके पास होते हैं तो आप हमें जन्नत और जहन्नुम की याद दिलाते हैं तो हालत यह होती है कि ऐसा लगता है कि हम (जन्नत और जहन्नम को) अपनी आंखों से देख रहे हैं। और जब हम आपके यहाँ से चले जाते हैं तो पत्नियों, बच्चों और कामकाज की देखभाल में लग जाते हैं और बहुत कुछ भूल जाते हैं।" उस पर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अलेही ने इरशाद फ़रमाया: "उस (सर्वशक्तिमान अल्लाह) की कसम जिसकी कुदरत में मेरी जान है! अगर तुम हमेशा उसी हालत में रहो जिस तरह मेरे पास होते हो और ज़िक्र में लगे रहो तो फरिश्ते तुम्हारे बिस्तरों और तुम्हारे रास्तों में (आकर) तुम से हाथ मिलाएं। लेकिन ऐ ह़ंज़लह! कोई घड़ी किसी तरह की होती है और कोई किसी तरह की। (यानी समय-समय की बात है।)" ऐसा नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम वाले ने तीन बार इरशाद फ़रमाया।
जिन सिद्धांतों को हमें इस्लाम से समझना चाहिए उनमें से एक यह भी है कि हर संसारिक जायज़ काम अल्लाह की आज्ञाकारी और सवाब का कारण बन सकता है जबकि उसमें इमानदारी, अच्छी नियत और नेक इरादे को शामिल कर लिया जाए भले ही यह काम खाना-पीना, पहनना या पत्नी के साथ अपनी इच्छा पूरी करना ही क्यों न हो।
और कभी-कभार सर्वशक्तिमान अल्लाह किसी ऐसे दर्जे को जिसमें शरीरिक आनंद या ज़ाहिरी मज़ा दिखाए दे उसे अपनी कृपा से ऐसे दर्जे व स्थान से मिला देता है जो अपने मकसदों में सबसे बुलंद लोगों के दर्जे व स्थान तक पहुंच जाता है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:"अगर तुम हमेशा उसी हालत में रहो जिस तरह मेरे पास होते हो और ज़िक्र में लगे रहो तो फरिश्ते तुम्हारे बिस्तरों और तुम्हारे रास्तों में (आकर) तुम से हाथ मिलाएं।" यानी अगर तुम अपनी तबियत की ख्वाहिशों को न देखते और न ही अपना आप और अपनी पत्नियों और अपने बच्चों का ख्याल करते तो पूरे तौर पर इबादत के लिए खाली होने में तुम फरिश्तों की तरह हो जाते। लिहाज़ा ऐसी सूरत में फरिश्तों का उनसे हाथ मिलाना संभव हो जाता। क्योंकि अब वे पूर्ण आज्ञाकारी में उनकी तरह हो जाते। लेकिन यह इंसान की फितरत और उसकी पैदाइश के मकसद के खिलाफ बात है। इसीलिए नबी आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने तीन बार यह कहा कि ऐ ह़ंज़लह! कोई घड़ी किसी तरह की होती है और कोई किसी तरह की।
यह वह अनमोल वसियत है जो हमें हर चीज में नियाय से काम लेने पर उभारती है खासकर अधिकारों और जिम्मेदारियों के मुताबिक समय को बांटने में।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के इस फरमान का मतलब है कि: "लेकिन ऐ ह़ंज़लह! अपनी कुदरत और अपनी ताकत और जिम्मेदारी के हिसाब से कुछ समय में अपने अल्लाह की इबादत करो। कुछ अपने लिए निकालो और कुछ अपने घर वालों के लिए।" इसी आदेश को नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने तीन बार दोहराया ताकि हिदायत और रहनुमाई और नसीहत में ज़्यादती हो जाए, जो उन्हें करना चाहिए उस पर ज़ोर हो जाए तथा उनका शक और उनकी हैरत और अपने आप से मुनाफक़त (दो रुखा होने) का वहम दूर हो जाए। क्योंकि जो वह करते हैं दूसरे नेक लोग भी करते हैं और उनमें सबसे ऊपर खुद नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम हैं।
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपने साथियों को धर्म में ज़्यादती करने, कहने-करने में बनावट दिखाने और बिना वजह की ज़्यादती करने और अपने आप को जिंदगी की जरूरतों से दूर रखने से हमेशा चेतावनी देते रहते थे।
नफ्स व शरीर को सुकून और चैन देना जिंदगी की ऐसी जरूरत है कि जिस के सिवा कोई चारा नहीं। लेकिन यह जायज़ तरीकों से होना चाहिए जो उन बुलंद अखलाक के खिलाफ न हो जो अल्लाह और रसूल पर ईमान रखने वाले हर मुसलमान के अंदर होने चाहिएं।
इस वसियत का लब्बोलुआब यह है कि इस्लाम धर्म ऐसा धर्म है जो हर हालत के हिसाब से चलता है और बिना परेशानी के इंसान को हर वह चीज देता है जिसकी उसे जरूरत होती है। लिहाज़ा इस्लाम संतुलन का धर्म है जिसमें किसी तरह की ज़्यादती और कमी नहीं है। यह आत्मा और शरीर को बिना ज़्यादती और फिजूलखर्ची के उनका अधिकार देता है और मुसलमान पर यह जरूरी करता है कि इबादतों और आदतों के बीच न्याय व इंसाफ के साथ अपने समय को बांटे।