1. सामग्री
  2. इस्लाम कृपा एंव दया का धर्म
  3. कृपा का प्रलोभन

कृपा का प्रलोभन

नबी सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को अल्लाह की सृषिट के साथ कृपा  व दया करने पर लोगों को उभारा है, वह छोटे हों या बड़े, नर हों या नारी, चाहे वह मुसलमान हों या नासितक, तथा इस संबंध में बहुत सारे तर्क वर्णित हैं:

  • जरीर बिन अब्दुल्लाह रजि़यल्लाहु अन्हु द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

''जो व्यकित लोगों के ऊपर दया नहीं करता अल्लाह उसके ऊपर दया नहीं करता।" (बुखारी व मुसिलम)

  • तथा हज़रत अबू मूसा रजि़यल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने नबी सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना कि :

''तुम मोमिन नहीं हो सकते यहाँ तक कि आपस में एक दूसरे के ऊपर दया व कृपा  करने लगो।"

उन्हों ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! हम में का हर व्यकित दयालू है।

आप सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि:

''दया यह नहीं कि तुम में से कोर्इ अपने साथी के साथ करे, परन्तु दया यह है कि साधारण जनता के साथ करो।" (इसे तबरानी ने बयान किया है और अलबानी ने हसन कहा है)

यह इस बात का तर्क है कि दया सब जनता के साथ होना चाहिए, जिस को आप जानते हों तथा जिस को ना जानते हों, (सब के साथ दया करें)।

  • तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रजि़यल्लाहु अन्हुमा द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

''दया करने वालों के ऊपर अल्लाह तआला दया करता है, धरती पर बसने वालों के ऊपर दया करो आकाष वाला तुम्हारे ऊपर दया करे गा।" (अबू दाऊद और त्रिमिज़ी ने इसे बयान किया है और त्रिमिज़ी ने कहा है कि यह हदीस हसन-सहीह है)

आप नबी सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम के इस फरमान कि ''धरती पर बसने वालों के ऊपर दया करो" के अर्थ में मनन चिन्तन करें तो आप इस धर्म की महानता को समझ जायें गे जो पूरी मानव जाति के लिए कृपा  (रहमत) बन कर उतरा है, अत: इस धर्ती पर बसने वाले हर व्यकित इस्लाम धर्म में दया का पात्र है !

चाहे वह अनीश्वरवादी ही हो?

जी हाँ, चाहे वह ग़ैर मुसिलम ही क्यों न हो !

फिर इस्लाम ने धर्म-युद्ध का आदेश क्यों दिया?

इस्लाम ने धर्म-युद्ध का आदेश अल्लाह की कृपा  तथा लोगों के बीच रोड़ा बनने वाले व्यकित को हटाने के लिए दिया,  अल्लाह तआला का फरमान है:

كُنْتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ(آل عمران: 110).

''तुम बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों के लिए पैदा की गर्इ है। (सूरत आल इम्रान:110)

हज़रत अबू हुरैरा रजि़यल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि तुम लोगों में लोगों के लिए सब से उत्तम हो, तुम उन को बेडि़यों में इस लिए जकड़ कर लाते हो ताकि तुम उन को स्वर्ग में ले जा सको।

इस्लाम का द्धेष तथा कीना कपट से कोर्इ संबंध नहीं, जिस ने जीवन के अनेक भागों में मानवता को विनाश के घाट उतारा।

नि:सन्देह कठोर हृदय जिस में कृपा  व दया न हो वह सच्चे विश्वासियों (मोमिनों) के हृदय नहीं, इसी लिए नबी सल्लल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि:

''कृपा  केवल दु:शील से उठा ली जाती है।" (इसे अबू दाऊद ने बयान किया है और अलबानी ने इसे हसन कहा है)

इस में कोर्इ शक नहीं कि दूसरे विश्व युद्ध में 60 मिलियन जनता मारी गर्इ, क़बरें अपने मदफूनों से तंग हो गयीं तथा शव  की बदबू संसार के कोने कोने में फैल गयी और मानवता खून तथा खोपडि़यों और शवों के टुकड़ों के समुद्र में डूब गयी तथा युद्ध नेताओं ने चाहा कि अपने शत्रुओं की टोलियों में नागरिकों की सब से बड़ी संख्या को मौत के घाट उतार दें, तथा बसितयों को नष्ट करने, निशने राह को मिटाने और जीवन के हर दस्तूर का सफाया करने के लिए सब से बड़ी स्म्भाविक ताक़त का प्रयोग करना चाहा !

तो यह लोग विश्व को किस प्रकार की स्वतन्त्रता दे सकते हैं?

तथा मानव जाति को कौन सी आज़ादी दिला सकते हैं?

यह युद्ध क्यों हुआ ?   इस के क्या कारण थे ? इसके नैतिक कारण क्या थे? इसके परिणाम क्या निकले ? इस में होने वाली तबाही का जि़म्मेदार कौन

है ? इन सब पर किसी ने नहीं सोचा तथा इच्छाओं, कठोरता और कीना कपट को अधिकार प्राप्त रहा तथा युद्ध नेताओं को बल-शक्ति का घमंड चढ़ा रहा, अन्तत: इस भयानक विश्व-संघर्ष का परिणाम यही निकला !

आश्चर्य की बात यह है कि जिन लोगों ने इस घिनावने नर-हत्या का कांड किया वही लोग आज इस्लाम तथा मुसलमानों पर कठोरता और सख्ती का आरोप लगाते हैं,  और समझते हैं कि इस्लाम कठोरता पर उभारने वाला धर्म है तथा नष्ट, विनाश और सार्वजनिक हत्या की ओर बुलाता है!!!

परन्तु यह तो सफेद झूठ है जिस का तर्क न तो इतिहास से मिलता है और न ही मौजूदा सूरते हाल से मिलता है।

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब हज़रत अली रजि़यल्लाहु अन्हु को ख़ैबर के यहूदियों की ओर भेजा तो हज़रत अली ने आप से प्रश्न किया कि ऐ अल्लाह के संदेष्टा! क्या मैं उन से युद्ध करता रहूँगा यहाँ तक कि वह हमारी तरह हो जायें (मुसलमान हो जायें) अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

''इतमिनान से रवाना हो जाओ यहाँ तक कि ख़ैबर के मैदान में पहुँच जाओ फिर सब से पहले उन को इस्लाम धर्म की ओर बुलाओ और उनके ऊपर अल्लाह के जो अधिकार (हुक़ूक़) हैं उन को बताओ, अल्लाह की सौगंध ! यदि अल्लाह तुम्हारे ज़रिया से एक व्यकित को हिदायत दे दे तो तुम्हारे लिये यह लाल रंग के ऊँटो से बेहतर है।" (बुख़ारी व मुसिलम)

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने एक कमांडर को यह आदेश दे रहे हैं जिस के अन्दर हत्या करने और खून बहाने की कोर्इ बात नहीं, अपितु आप के आदेश में यह संकेत है कि इन लोगों का हिदायत पा जाना तथा सत्य (इस्लाम) को स्वीकार कर लेना उन को कुफ्र की सिथति में मारने से बेहतर है।

और युद्ध में इस्लाम की कृपा  के विषय में हज़रत अनस बिन मालिक रजि़यल्लाहु अन्हु वर्णन करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि:

''रसूलुल्लाह के धर्म पर रहते हुये अल्लाह के वास्ते अल्लाह का नाम लेकर निकल जाओ, किसी कमज़ोर बूढ़े को मत मारो और न ही किसी छोटे बच्चे को और न ही नारी को और माले ग़नीमत में खि़यानत न करो और माले ग़नीमत समेट लो और संधि से काम लो और भलार्इ करो, नि:सन्देह अल्लाह भलार्इ करने वाले को चाहता है।" (अबू दाऊद)

आप के इस आदेश से उन लोगों का क्या संबंध है जिन्हों ने बसितयों को नष्ट किया तथा बसितयों में बसने वालों को तबाह किया और विश्व आधार पर वर्जित हर प्रकार के हथियारों का प्रयोग कर के औरतों, बच्चों, बूढ़ों, खेत के किसानों और गिरजाघरों के पादरियों को क़त्ल किया ?!

जिन युद्धों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नेतृत्व किया या जो युद्ध आप के युग में हुए उन में नासितकता के कोर्इ सैंकड़ों नेता मारे गये जिन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कष्ट दिया था, आप के साथियों को शहीद किया था तथा इस्लाम और मुसलमानों पर हर जगह तंगियां कीं तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने कष्ट देते हुये तथा कारादण्ड देते हुये उन को अन्य देशों की ओर जिला वतन हो जाने तथा उनको अपने मालों और घरों को छोड़ देने पर मजबूर नहीं किया। जब कि केवल सलीबी युद्ध के अन्दर लाखों मुसलमान खत्म कर दिये गये तथा लाखों लोग अनेक प्रकार की घिनावनी यातनाओं से पीडि़त हुये।

तो तुम्हारी वह दया कहाँ है जिस के तुम दावे करते हो?

तथा आज तक इन लोगों ने इस घिनावने करतूतों से क्षमा क्यों नहीं मांगी?!

जोस्टेफ लोफन  ----  जो कि एक बड़ा मुस्तशिरक़ (पूर्व देशीय भाषाओं और उलूम का ज्ञान रखने वाला पशिचमी विचारक) है- कहता है कि: ''सत्य तो यह है कि लोगों ने अरबों जैसी दया व रहम करने वाले विजेता नहीं देखे, इस्लाम धर्म ने ही मुसलमानों को यह कृपा  तथा दया प्रदान की, तथा हम ने अनेक युद्ध देखे हैं जैसे अफयून का युद्ध तथा उस से कठोर आज की स्तेमारी जंगें और इस से भी कठोर सहयूनियों की कठोरत तथा अत्याचार है, विनाशकारी तथा खून बहाने से इन सहयूनियों को लगाव है।" (रहमतुल इस्लाम पृष्ठ 167-168)

यह तो मुसलमानों की दया है और यह इन शत्रुओं की कठोरता है, तो फिर कौन से गरोह पर कठोरता,  हत्या तथा आतंक का आरोप लगाया जा सकता है?!

शेख अब्दुर्रहमान सअदी कहते हैं : ''इस धर्म की कृपा , बेहतर मामलात और भलार्इ की दावत तथा इस के विपरीत वस्तुओं से मनाही ने ही इस धर्म को अत्याचार, दुव्र्यवहार तथा अनादरता के अन्धकार में ज्योति तथा प्रकाश  वाला बना दिया और इसी विशेषता    ने कठोर शत्रुओं के हृदयों को खींच लिया यहाँ तक कि उन्हों ने इस्लाम धर्म के साये में पनाह ली और इस धर्म ने अपने मानने वालों के ऊपर दया की यहाँ तक कि रहम-क्षमा और दया (एहसान) उनके दिलों से छलक कर उनके कथन और कामों पर प्रकट होने लगे, और यह एहसान उनके शत्रुओं तक जा पहुँचा, यहाँ तक कि वह इस धर्म के महान मित्र बन गये,   कुछ तो शौक़    और बेहतर सूझ-बूझ से इस के अन्दर दाखिल हो गये और कुछ इस धर्म के आगे झुक गये तथा (उन के दिलों में) इस (इस्लाम) के आदेशों में उल्लास पैदा हो गया और उन्हों ने न्याय और कृपा  के आधार पर इस्लाम धर्म को अपने धर्म के आदेशों पर प्राथमिकता दी। (अद्दूर्रतुल-मुख्तसरह पृष्ठ 10 -11)

 

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