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क्या वह नफ्ल रोज़े रख सकती है जबकि उसके ऊपर रमज़ान के कुछ दिनों के रोज़े बाक़ी हैं ॽ

Under category : लेख
2415 2013/06/19 2024/12/18

मैं ने मासिक धर्म के कारण रमज़ान में कुछ दिनों के रोज़े तोड़ दिए, और अभी तक मैं ने अपने क़र्ज़ को नहीं पूरा किया है, क्या मेरे लिए ज़ुलहिज्जा के प्रथम दहे का रोज़ा रखना जायज़ है . . ॽ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

यह मस्अला विद्वानों के यहाँ रमज़ान की क़ज़ा से पहले नफ्ली रोज़ा रखने के नाम से जाना जाता है, इसके बारे में विद्वानों के बीच मतभेद है, चुनाँचे कुछ विद्वानों ने आदमी के ऊपर जो रोज़े अनिवार्य हैं उनकी क़ज़ा करने से पहले नफ्ली रोज़ा रखने को हराम (निषिद्ध) ठहराया है, क्योंकि अनिवार्य रोज़े से शुरूआत करना नफ्ल से अधिक महत्वपूर्ण है, जबकि कुछ विद्वानों ने इसे जायज़ ठहराया है।

माननीय शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि : यदि किसी अनिवार्य (वाजिब) की क़ज़ा और एक ऐच्छिक (मुसतहब) काम एकत्र हो जाए, तो क्या इंसान के लिए जायज़ है कि मुसतहब काम को करे और वाजिब की क़जा को बाद के समय के लिए विलंब कर दे या कि वह पहले वाजिब काम की शुरूआत करे, उदाहरण के तौर पर : आशूरा के दिन का रोज़ा रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा के साथ पड़ जाए ॽ

तो उन्हों ने उत्तर दिया : “इसमें कोई संदेह नहीं कि फर्ज़ और नफ्ल रोज़ों के संबंध में धर्मसंगत और उचित यह है कि वह नफ्ल से पहले फरीज़ा से शुरूआत करे, क्योंकि फरीज़ा उसके ऊपर अनिवार्य क़र्ज़ है, जबकि नफ्ली रोज़े एच्छिक हैं यदि वे रखे जा सकें तो ठीक, अन्यथा कोई आपत्ति की बात नहीं है, इस आधार पर हम उस व्यक्ति से जिसके ऊपर रमज़ान की क़ज़ा बाक़ी है, कहते हैं कि : नफ्ल रोज़ा रखने से पहले आप अपने ऊपर अनिवार्य रोज़ों की क़ज़ा करें, और यदि उसने अपने ऊपर अनिवार्य रोज़ों की क़ज़ा से पहले नफ्ली रोज़ा रख लिए तो तो सहीह बात यह है कि उसका नफ्ली रोज़ा रखना सहीह है जब तक कि समय में विस्तार है, क्योंकि रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा का समय उस वक़्त तक रहता है जब तक कि आदमी के और दूसरे रमज़ान के बीच उतना समय बाक़ी रहता है जितना उसके ऊपर रोज़ा अनिवार्य रह गया है, अतः जब तक मामले में विस्तार है तो नफ्ली रोज़ा रखना जायज़ है, जैसेकि उदाहरण के तौर पर फर्ज़ नमाज़, यदि समय के विस्तार के साथ इंसान फर्ज़ नमाज़ से पहले नफ्ली नमाज़ पढ़ ले तो जायज़ है, अतः जिसने अरफा के दिन का या आशूरा के दिन का रोज़ा रखा जबकि उसके ऊपर रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा बाक़ी है तो उसका रोज़ा रखना सही है, लेकिन यदि उसने यह नीयत कर ली कि वह इस दिन का रोज़ा, रमज़ान के बाक़ी रह गए रोज़ों के बदले, रख रहा है तो उसे दो अज्र मिले गा : क़ज़ा के अज्र के साथ अरफा के रोज़े का अज्र और आशूरा के रोज़े का अज्र। यह सामान्य नफ्ली रोज़े के बारे में है जो रमज़ान से संबंधित नहीं है। जहाँ तक शव्वाल के छः रोज़ों का संबंध है तो वह रमज़ान से संबंधित है और वह रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा के बाद ही हो सकता है, यदि वह रमज़ान की क़ज़ा से पहले उनके रोज़े रख ले तो उसे उनका अज्र नहीं मिलेगा, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “जिसने रमज़ान का रोज़ा रखा फिर उसके पीछे शव्वाल के छः रोज़े रखे तो गोया उसने ज़माने भर का रोज़ा रखा।” और यह बात पता है कि जिसके ऊपर क़ज़ा अनिवार्य है वह रमज़ान का रोज़ा रखने वाला नहीं समझा जायेगा यहाँ तक कि वह क़ज़ा की पूर्ति कर ले। यह ऐसा मसअला है जिसके बारे में कुछ लोगों का गुमान यह है कि यदि छः रोज़े रखने से पूर्व शव्वाल के महीने के निकलने का डर हो तो आदमी उसके रोज़े रख लेगा भले ही उसके ऊपर क़ज़ा बाक़ी है। हालाँकि यह बात गलत है, क्योंकि इन छः दिनों का रोज़ा उसी समय रखा जायेगा जब आदमी अपने रमज़ान के बाक़ी रह गए रोज़ों को पूरा कर ले।” मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन (20/438).

इस आधार पर, आपके लिए ज़ुलहिज्जा की प्रथम दहाई के रोज़े रखना जायज़ है इस तौर पर कि वे नफ्ली रोज़े हैं, और बेहतर यह है कि आप उन्हें रमज़ान की क़ज़ा की नीयत से रखें, और अल्लाह ने चाहा तो आप को दोनों के अज्र प्राप्त होंगे।

तथा प्रश्न संख्या (23429) का उत्तर देखें, और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

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