Search
हज़रत हफ्सा पुत्री हज़रत उमर-अल्लाह उनसे प
हज़रत हफ्सा पुत्री हज़रत उमर-अल्लाहउनसे प्रसन्न रहे-
वह हज़रत हफ्सा पुत्री हज़रत उमर इब्न अल-खत्ताब मुसलमानों के हाकिम-अल्लह उनसे खुश रहे- का जन्म हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की नुबुव्वत (ईश्दूतत्व) के एलान करने से पाँच साल पहले हुआ l
हज़रत हफ्सा एक महान सहाबीखुनैस बिनहुज़फा अस-सहमीके विवाह में थी, जो दोनों हिजरतों (स्थलांतरों) में शामिल थे, पहले तो वह अपने धर्म को बचाने के लिए हब्शा की ओर हिजरत किए थे, फिरहज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-का साथ देने के लिए पवित्र मदीना को हिजरत किएlऔर फिर बद्र की लड़ाई में भाग लिए, उसके बाद जंगे उहद में भाग लिए जिस में उनको एक मार लगी थी उसके बाद जल्द ही चल बसे, और अपने पीछे अपनी पत्नी हज़रत हफ्सा को छोड़ गए, उस समय हज़रत हफ्सा जवान थीं, जब उनके पति का निधन हुआ था तो वह बीस साल की थींl
हज़रत हफ्सा की हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के साथ विवाह
हज़रतउमर अपनी जवान बेटी के दुख पर बहुत दुखी हुए, उनको यह देख कर बहुत परेशानी होती थी कि विधवापन उनकी बेटी को निगलती जा रही है, और अपनी बेटी को विधवापन की तन्हाई में देख कर दिल ही दिल में कुढ़ते थे, जबकि हज़रत हफ्सा अपने पति के साथ विवाहित जीवन में बहुत खुश रहती थीं, इसलिए हज़रत उमर उनकी इद्दत(तीन माहवारी) गुज़रने के बाद उनके बारे में सोचने लगे कि किसके साथ उनका विवाह किया जाए?
दिन तो तेज़ी से गुज़र रहे थे, और उनके लिए शादी का कोई पैगाम नहीं आ रहा थाlलेकिन उनकोयह पता नहीं चला किहज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-भी उस बात पर चिंतित थे, इसलिए उन्होंने हज़रत अबू-बक्र को यह बताया कि वह उनके साथ शादी का इरादा रखते हैं, और जब हज़रत उमर ने देखा कि ज़्यादा दिन बीत जा रहे हैं और उनकी जवान बेटी घर में बैठी है और विधवापन के दुख को झेल रही हैतोउन्होंने हज़रत अबू-बक्र के सामने उनके साथ शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन वह चुप रहे और इस विषय में कोई उत्तर नहीं दिएlउसके बाद उन्होंने हज़रत उस्मान के सामने उनके साथ शादी का प्रस्ताव रखा जब उनकी पत्नी रुक़य्या का निधन हो गया था और हज़रत रुक़य्या तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की पुत्री थीं तो हज़रत उस्मान ने कहा मैं अभी शादी नहीं करना चाहता हूँ इस पर हज़रत उमर हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-को यह शिकायत किए तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने कहा:हफ्सा से तो वह शादी करेगा जो उस्मान से बेहतर है, और उस्मान तो उससे शादी करेगा जो हफ्सा से बेहतर है, इसी बीच हज़रत अबू-बक्र की हज़रत उमर से मुलाक़ात हो गई तो उनसे कहा: मेरे ऊपर गुस्सा मत कीजिएगा क्योंकि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने तो हफ्सा को उल्लेख किया था लेकिन मैं अल्लाह केपैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-का रहस्य को खोल नहीं सकता था यदि वह न बोले होते तो मैं तो ज़रूर उसके साथ विवाह कर लिया होता, इस तरह हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने हज़रत आइशा के बाद हज़रत हफ्सा के साथ विवाह कर लियाl
इस हदीस का मूल तो सही है, इसे इब्न हजर अस्क़लानी ने उल्लेख किया है, देखिए “अल-इसाबा”पेज नंबर ४/२७३ l
लेकिन हज़रत उमर को हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की बात का अर्थ समझ में नहीं आया था, शायद ऐसा इसलिए हुआ कि वह अपनी बेटी के दुख में बहुत डूबे थे, इसके बाद हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने हज़रत हफ्सा का हाथ माँगा तो हज़रत उमर ने उनके साथ हफ्सा का विवाह कर दिया, वास्तव में वह हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-को दामाद बना कर इस रिश्ते पर एक प्रकार का सम्मान महसुस कर रहे थे, उनको लग रहा था कि इस के द्वारा वह भी हज़रत अबू-बक्र के दर्जे को पा लिए जो दर्जा हज़रत अबू-बक्र को हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के साथ अपनी पुत्री आइशा की शादी के द्वारा मिला थाlमेरे ख्याल में-जबकि अल्लाह ही बेहतर जानता है-हफ्सा से शादी करने से हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-का यही मकसद था l
इसके बाद हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने हज़रत उस्मान की शादी अपनी दूसरी बेटी उम्मे-कुलसूम के साथ करा दी, जब हज़रत रुक़य्या का निधन हो चुका था, जब हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की शादी हज़रत हफ्सा के साथ हो चुकी तो हज़रत उमर हज़रत अबू-बक्र से मिले तो हज़रत अबू-बक्र ने उनसे माफ़ी मांगी और कहा: मुझ पर नाराज़ मत होईये क्योंकि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने हफ्सा को उल्लेख किया था लेकिन मैं तो उनके रहस्य को प्रकट नहीं करना चाहता था, और यदि वह उसको शादी में न लाते तो मैं शादी कर लेता था l
इस तरह हज़रत उमर और उनकी बेटी के जीवन में फिर से खुशी लौट आई, और सहाबा ने हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-को बधाई दी कि उन्होंने हज़रत उमर को इस रिश्ते से सम्मानित किया, और हज़रत हफ्सा को विधवापन और जुदाई के दर्द से मुक्त किया और उनके आंसू पोंछे lयह शादी हिजरत के तीसरे साल में हुई थी और हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने शादी उपहार के रूप में ४०० दिरहम दिए थे और हज़रत हफ्सा की उम्र उस समय बीस साल थी l
हज़रत हफ्सा हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के घर में
हज़रत हफ्सा को हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के घर में बड़ा सम्मान मिला बल्कि वह हज़रत आइशा की बराबरी करती थीं lऔर हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की पवित्र पत्नियों में उनका बड़ा मुक़ाम था-अल्लाह उन सब से प्रसन्न रहे-l
और हज़रत हफ्सा जब हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के विवाह में आईं तो वह तीसरी पत्नी थीं क्योंकि उनसे पहलेहज़रत सौदा और हज़रत आइशा उनके विवाह में आ चुकी थीं l
हज़रत सौदा तो उनका खुशी से स्वागत कीं लेकिन हज़रत आइशा तो हैरान हो गईं और उनको समझ में नहीं आया कि इस नई और जवान सौकन से कैसे निपटे, और यह तो हज़रत उमर की बेटी हैं, वह उमर जिनके द्वारा पहले इस्लाम को सरबुलंदी मिली, और अधर्मियों के दिल इस्लाम का सिक्का बैठ गया, हज़रत आइशा तो इस अचानक शादी पर चुप हो गईं, और उनको कुछ समझ में नहीं आया, जबकि वह तो हज़रत सौदा से ही बहुत तंग थीं जिनसे उनको उतना दुख नहीं पहुँचता था, और अब तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के समय में तीन भागों में से एक भाग की मालिक होगी, लेकिन धीरे धीरे हज़रत आइशा की ईर्ष्या में कुछ कमी हुई, और उनके साथ दोस्ती का वातावरण बन गया खासतौर पर जब हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की दूसरी पत्नियां, हज़रत ज़ैनब,उम्मे सलमा, जुवैरिया, सफिय्या और एक दूसरी पत्नी जिनका नाम भी ज़ैनब था, आ गईं इन सब के आने पर हज़रत आइशा को हज़रत सफिय्या के साथ दोस्ती करना ही पड़ा, इसलिए हज़रत हफ्सा को हज़रत आइशा की दोस्ती पर खुशी थी, क्योंकि ऐसी दोस्ती दूसरी सौकनों के बीच नहीं पाई जाती थीं l
हज़रत हफ्सा-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-के गुण
विश्वासियों की माता हज़रत हफ्सा, बहुत रोज़ा रखनेवाली, बहुत नमाज़ पढ़नेवाली थीं, इसकी गवाही तो खुद ईशवाणी लानेवाला फ़रिश्ता जिबरील ने दी थी, और खुशखबरी मिली थीं :ऐ अल्लाह के पैगंबर वह तो स्वर्ग में आपकी पत्नी हैं, हज़रत हफ्सा अल्लाह के उपदेश को अच्छी तरह समझी थीं और अल्लाह सर्वशक्तिमान की शुभ किताब के सिद्धांतों की पाबंद थीं, वह शुभ क़ुरआन को पढ़ती थीं, और उसके अर्थों को समझने का प्रयास करती थीं , इसी कारण उनके पिता हज़रत उमर फारूक-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे- का ध्यान क़ुरआन शरीफ की ओर ज़ियादा आकर्षित हुआ, और उन्होंने हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की मृत्यु के बाद शुभ क़ुरआन की वह कॉपी जो हज़रत अबू-बक्र-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-के समय में लिखी गई थी हज़रत हफ्सा को देने की सिफारिश की थी, और यह कॉपी हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के उस आखिरी सुनने और सुनाने के काम पर आधारित थी जो हज़रत जिबरील के साथ अपने निधन के साल रमज़ान शरीफ में हुआ थाl
हज़रत हफ्सा के पास शुभ क़ुरआन की कॉपी(अनमोल तुहफ़ा)की सुरक्षा
अबू-नुऐम इब्न शिहाब से कथित करते हैं कि खारिजा बिन ज़ैद बिन साबित ने अपने पिता के हिवाले से उल्लेख किया उनका कहना है: जब हज़रत अबू-बक्र ने मुझे आदेश दिया तो मैंने क़ुरआन को इकठ्ठा किया जो मैंने चमड़े के टुकड़ों, ऊंट के पैर की हड्डियों पर और खजूर के छिलकों पर लिखे थे तो जब अबू-बक्र-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-का निधन हुआ तो हज़रत उमर ने उन सब को एक कॉपी में लिख कर जमा कर दिया, और वह कॉपी एक ही प्रकार के चमड़े पर लिखे थे, और जब हज़रत उमर-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे- का भी निधन हो गया तो वह कॉपी हज़रत हफ्सा के पास थी, कुछ समय के बाद हज़रत उस्मान-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-ने हज़रत हफ्सा के पास कहा भेजा कि वह कॉपी उनको थोड़े दिनों के लिए दें और उन्होंने क़सम खाकर कहा कि फिर वह कॉपी उनको वापस दे दी जाएगी, फिर हज़रत उस्मान ने उस कॉपी से और कॉपी बना कर उनको वापिस दे दिया, इस पर उनका भी दिल खुश हो गया, उसके बाद उन्होंने दुसरों को भी लिख लेने का आदेश दिया तो वे सब लिख लिएlशुभ क़ुरआन की इस कॉपी में कई विशेषताएं पाई गईं , उन में से एक विशेषता यह थी कि यह दूसरी बार की लिखित कॉपी थी जिसको हज़रत अबू-बक्र-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-के समय में जमा किया गया था, और हज़रत उमर बिन खत्ताब की सलाह के कारण अमल में आया था, क्योंकि उस समय मुसैलमा कज्ज़ब(यानी झूटा मुसैलमा जो धोका देने के लिए ईश्दूतत्व का दावा किया था)के मुक़बला में क़ुरआन के माहिर मारे जाने लगे थे, याद रहे कि यमामा की लड़ाई में सत्तर ऐसे लोग मारे गए थे जो पूरे क़ुरआन को याद किए हुए थे और क़ुरआन पढ़ने में माहिर थे, इस कॉपी की विशेषताओं को हम संक्षेप में नीचे उल्लेख करते हैं:
पहली: इस मेंयह बात शामिल रही कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-से जिस किसी ने भी क़ुरआन की कोई आयत को सुना था या सिखा था उसके विषय में हज़रत ज़ैद को बता दियाl
दूसरा:इस मेंयह बात पाई गई कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के समय में जिस किसी ने भी क़ुरआन की कोई आयत लिखी थी वह उसे हज़रत ज़ैद को ला कर दे दियाl
तीसरी:हज़रत ज़ैद उसी लिखित आयत को स्वीकार करते थे जो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के सामने लिखी गई थी lचौथी: वह हड्डियों या चमड़ों पर लिखित और लोगों के सीनों में सुरक्षित आयतों को जमा करते थे और पहले दोनों के बीच तुलना करते थे, और दोनों पर भरोसा करते थे किसी एक पर ही भरोसा नहीं करते थे l
पांचवीं:हज़रत ज़ैद किसी से भी कोई चीज़ उस समय तक स्वीकार नहीं करते थे जब तक उसको डारेक्ट हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-से सुनने या सीखने पर दो गवाह गवाही न दे देते, इस तरह इस कॉपी में सामूहिक सहमति भी शामिल रही, जिसकी संख्या कम से कम तीन होती थीl
छठी:क़ुरआन शरीफ का यह संकलन अपनी मिसाल आप था क्योंकि यहसंकलन हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के निधन से पहले जो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-और हज़रत जिबरील के बीच सुनने सुनाने (या दौराह) के अनुसार था l
हज़रत ज़ैद के इस कठिन और महान काम में हज़रत उमर बिन खत्ताब भी साथ देते थे, इस विषय में उरवह बिन ज़ुबैर कथित करते हैं की हज़रत अबू-बक्र ने हज़रत उमर और हज़रत ज़ैद को आदेश दिया:आप दोनों मस्जिद के दरवाजे पर बैठिए और जो भी दो गवाहों को लेकर आए कि यह क़ुरआन शरीफ की आयत है तो आप दोनों उसे लिख लीजिए lहाफिज़ सखावी “जमालुल कुर्रा”नामक अपनी पुस्तक में कहते हैं: इसका मतलब यह है कि वह दोनों गवाह इस बात पर गवाही दें कि वह लेख हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के सामने लिखा गया, या इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वे दोनों गवाह इस बात की गवाही दें कि यह भी क़ुरआन के पढ़ने के तरीकों में से एक तरीका है, और जब हज़रत उस्मान के आदेश पर सारे सहाबा सहमत हो गए कि सारे लोगों को एक ही (इमाम नामक) कॉपी पर इकठ्ठा कर दिया जाए जिसके अनुसार सारे लोग लिख लें तो उस समय के हाकिम हज़रत उस्मान ने हज़रत हफ्सा के पास कहा भेजा कि अपना क़ुरआन दें जिससे सारे लोग कॉपी कर लेंगे lजी हाँ यही वह अनमोल तुहफ़ा था जिसे हज़रत उमर बिन खत्ताब ने अपनी बेटी हज़रत हफ्सा के पास रखाया था, और वह उसे पूरी कोशिश और ईमानदारी के साथ सुरक्षित रखीं, और उसे बचा बचा कर रखी और फिर सहाबा ने भी उसे याद किया और फिर उनके बाद आनेवाले लोग उसे याद किए और सुरक्षित रखे फिर उनके बाद आनेवाले लोग भी उसी तरह किए और वही सिलसिला अब तक चल रहा है, और यही सिलसिला क़ियामत तक चलता रहेगा, इस तरह उनकी सुंदर याद जिंदा है जब जब भी क़ुरआन के जमा करने की बात मुसलमानों में आती है, चाहे वह हज़रत अबू-बक्र-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-के समय में जमा किए जाने की बात हो या हज़रत उस्मान के समय की बात हो, वह हज़रत उस्मान की शहादत(हत्या)भी देखीं, फिर हज़रत अली के राज्य के आखिर तक ज़िंदा रहीं, बहुत नमाज़ पढ़ती थीं, रोज़ा रखतीं थीं और इबादत में लगी रहती थीं, और हज़रत अमीर मुआविया बिन सुफ़यान के राज्य के शुरू शुरू में उनका निधन हुआlऔर शुभ मदीना के लोग उनके जनाज़े केलिए निकले और “जन्नतुल बकीअ”में दफनाई गईं, जहाँ हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की दूसरी पवित्र पत्नियां दफन हैं l