1. सामग्री
  2. पैगंबर (सल्लल्लाहु अ़लैहि व सल्लम) की आज्ञाएं व वसीयतें
  3. जो माल बिना ख्वाहिश और बगैर मांगें आए तो वह ले लिया करो

जो माल बिना ख्वाहिश और बगैर मांगें आए तो वह ले लिया करो

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तर्जुमा: ह़ज़रत ज़ोहरी कहते हैं कि मुझसे सालिम बिन अ़ब्दुल्लह ने बयान किया कि अ़ब्दुल्लह बिन उ़मर ने कहा कि मैंने ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु को यह बयान करते हुए सुना कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मुझे कोई माल देते तो मैं कहता: "आप इसे मुझसे ज़्यादा जरूरतमंद को दे दें।" तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम फरमाते: "इसे ले लो और अपने माल में शामिल कर लो या इसे सदका़ कर दो। और तुम्हारे पास इस तरह का जो भी माल आए जिसका ना तुम्हें लालच हो और ना तुम उसे मांगो तो उसे ले लिया करो और जो ऐसा ना हो उसके पीछे मत पड़ो।"

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपने सह़ाबा ए किराम पर खुद उनसे ज़्यादा मेहरबान और दयालु थे जैसा कि अल्लाह ने इस आयत में बयान फ़रमाया है:

तर्जुमा: बेशक तुम्हारे पास तशरीफ लाए तुम में से वह रसूल जिन पर तुम्हारा तकलीफ में पड़ना दुश्वार है। तुम्हारी भलाई के निहायत चाहने वाले, मुसलमानों पर बहुत दयालु मेहरबान।

(सूरह: तौबा, आयत संख्या:128)

यही वजह है कि दीनी व दुनियावी (धार्मिक और सांसारिक) दोनों तरह के मामलों में मुसलमानों पर आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की आज्ञाकारिता वाजिब (अनिवार्य) यानी ज़रूरी है जैसा कि सह़ाबा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम समझते थे और अपने हक में आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की रहनुमाई और सलाह का बहुत सम्मान करते थे क्योंकि वे जानते थे कि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम सच व ह़क ही फरमाते हैं और अल्लाह ताआ़ला के हुक्म से सीधे रास्ते की ही रहनुमाई करते हैं।

ह़ज़रत अबू बक्र, ह़ज़रत उ़मर, ह़ज़रत उ़स्मान, ह़ज़रत अ़ली और इनके अलावा दूसरे सहा़बा ए किराम रद़ियल्लाहु अ़न्हुम जिन्होंने इस्लाम में दाखिल होने में पहल की और नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ रहे वे सब सहा़बा ए किराम जो भी कुछ करते या फैसला लेते तो पहले उसमें नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से मशवरा लेते या फिर उनके पास उस काम को करने या उससे रुकने की आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की कोई ह़दीस़ मौजूद होती तो वे उसी के मुताबिक अमल करते। क्योंकि वह अल्लाह के फरमान:

﴿ اَلنَّبِیُّ اَوۡلٰی بِالۡمُؤۡمِنِیۡنَ مِنۡ اَنۡفُسِھمۡ ﴾

(सूरह, अल-अह़ज़ाब, आयत संख्या:6)

यानी यह नबी मुसलमानों का उनकी जान से ज़्यादा मालिक है " को हमेशा अपनी आंखों के सामने रखते थे।

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