हज़रत रमलह उम्मे-हबीबह-अल्लाह उनसे प्रसन्न रहे-
उनका वंश और उनका पालनपोषण:
मोमिनों की माँऔरहज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो- की पवित्र पत्नी का पूरा नाम रामलह बिनते अबू-सुफ़यान सख्र बिन हर्ब बिन उमय्या बिन अब्दे शम्स बिन अब्दे मनाफ था lवह एक गोशा परदह करनेवाली महीला थीं lइसी तरह वह एक सम्मानित सहाबी भी थीं और एक नेता की बेटी और एक खलीफा की बहन भी थीं, इसके साथ ही वह आखरी पैगंबर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की पवित्र पत्नी भी थींl
उनके पिता अबू-सुफ़यान थे जो कुरैश के बड़े नेता और सरदार थे, जो इस्लाम की शुरुआतमें तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के एक कट्टर दुश्मन थे जबकि उनके भाई मुआवियाबिन अबू-सुफ़यान उमवी हाकिमों से एक बहुत नामवर हाकिम थे lउम्मे-हबीबा के बुलंद मुकाम और बड़ा दर्जा के कारण उनके भाई हज़रत अमीर मुआविया को मुलके शाम(सीरिया) में “खालुल-मोमेनीन”यानी सारे मुसलमानों के मामू का ख़िताब दिया जाता था lऔर सब से बड़ी बात तो यह है कि वह हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की पवित्र पत्नियों में शामिल थींlयह बात बहुत ही मशहूर है किवह बहुत ही दान करनेवाली और बांटनेवाली और गरीबों पर अपना धन लुटानेवाली महिला थीं l
यह सब होते हुए किसका दर्जा उनसे ऊँचा हो सकता था? लेकिन फिर भी वह इस दुनिया के धनदौलत से बिल्कुल दूर और आखिरत पर ज़ियादा ध्यान रखती थीं lऔर सदा भविष्य की स्थायी आनंद को सांसारिक सुख से आगे रखती थीं l
वास्तव में, उम्मे-हबीबा उस समय की प्रमुख महिलाओं में शामिल थीं, जो ज्ञान और साफसुथरी भाषा और शुद्ध विचार की मालिक थीं lउनकी पहली शादी ओबैदुल्ला बिन जह्श के साथ हुई थीl जब हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने पवित्र मक्का में इस्लाम के संदेश का प्रचार शुरू किया तो रमला अपने पति के साथ अरक़म बिन अबू-अरक़म के घर में आ कर इस्लाम स्वीकार की थीं और जब मुसलमानों का उत्पीड़न अपने शीर्ष पर पहुँचा तो रमलाअपने पति के साथ स्थलांतर करके वहाँ से निकल गईं, ताकि अपने धर्म और ईमान को सुरक्षित रख सकेंlइस में वह जीवन की हर कठिनाई को झेलीं बल्कि इस केलिए वह दुनिया के सुख और चैन को बिल्कुल त्याग दीं, उनको अपने देश से निकलना पड़ा घर द्वार को छोड़ना पड़ा, लंबी यात्रा करके हब्शा को जाना पड़ा जबकि हब्शा पवित्र मक्का से बहुत दूर था, लंबे रास्तों को काट कर,कई कठिनाइयों और खतरों से गुज़र कर वहाँ पहुंचीं, खाना पीना भी उतना उनके साथ नहीं था, इसके इलावा वह अपने गर्भावस्था के पहले महीनों में थीं lउस समय की यात्रा को आज की यात्रा के साथ कोई तुलना नहीं है lअब तो यात्रा के लिए बिल्कुल आरामदायक साधन उपलब्ध है, जो बहुत कम समय में दूसरे देशों तक पहुँचा देते हैं और एक से एक नई सवारी अब मौजूद है l
हज़रत उम्मे-हबीबा जब कुछ महीने हब्शा में गुज़ार लीं तो उनको एक लड़की पैदा हुई जिसका नाम हबीबा रखा गया था, और इसीलिए वह “उम्मे-हबीबा”के ख़िताब से पुकारी जाती थीं यानी हबीबा की माँ l
उम्मे-हबीबा का सपना
एक रातउम्मे-हबीबा अपने पति उबैदुल्लाह को एक बहुत ही बुरी स्तिथि में अपने सपना में देखी, उस सपना से वह बहुत घबरा गईं जब सुबह हुई तो उनके पति ने उन्हें बताया कि उसे ईसाई धर्म में इस्लाम से भी बेहतर बातें मिलीं हैं lइस पर रमला बहुत कोशिश कीं कि उसे इस्लाम की ओर वापिस लाएं लेकिन देखी कि वह (शराब) पीने की अपनी पुरानी आदत की ओर लौट आया, और उनको विश्वास हो गया कि उसे फिर से इस्लाम की ओर वापिस लाना बहुत मुश्किल है l
दूसरी रात फिर सपना देखी कि कोई कहनेवाला उनको "विश्वासियों की मां" के नाम द्वारा संबोधित कर रहा है, तो उम्मे-हबीबा उसका यह मतलब समझ लीं कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-उनके साथ विवाह करेंगे lऔर हुआ भी ऐसा ही, समय गुज़रता गया और उनका पति ईसाई धर्म पर हब्शा में मर गया lहज़रत उम्मे-हबीबा अपने आपको विदेश में तनहा पाई, उनकी सुरक्षा करनेवाला पति भी इस दुनिया से चल बसा, फिर गोद में एक नवजात बच्ची भी है जो अनाथ हो चुकी है फिर वह एक मूर्तिपूजक की बेटी है हो सकता है कोई दुश्मन उनके हाथ से उसे छीन ले lइसलिए उसे लेकर पवित्र मक्का भी नहीं जा सकती है lयह सब होते पर भी वह बहुत विश्वास और ईमानवाली महिला निकलीं और धैर्य और संतोष का दामन हाथ से हरगिज़ जाने नहीं दी, बल्कि पूरे विश्वास के साथ अल्लाह सर्वशक्तिमान पर भरोसा करती रहीं l
उम्मे-हबीबा का विवाह
हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-को जब उम्मे-हबीबा की मुसीबतों की बारे में पता चला तो उन्होंने अन-नजाशी के पास खबर भेजी कि उनको उनसे शादी करनी है lइसलिए उम्मे-हबीबा को आज़ाद कर दिया गया, और उनका सपना सच निकला lयाद रहे कि नजाशी ने उनका खास ख़याल किया और उसी ने उनको ४०० दीनार महर का तुह्फा भी दिया lउल्लेखनीय है कि शादी के लिए हज़रत उम्मे-हबीबा ने अपने चचेरे भाई खालिद बिन-सईद बिन अल आस को पवित्र मक्का में जिम्मदार बना दी थीं lइस से पता चला कि इस्लाम में एक की शादी के लिए किसी को जिम्मेदारी दी जा सकती है और इस तरह की शादी भी शुद्ध होती है l
इस शादी के द्वाराहज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने बनू-उमय्या के दिलों से नफरत निकलने में भी कामयाबी प्राप्त की lजब अबू-सुफ़यान को पता चला कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने उनकी बेटी के साथ शादी कर ली तो उसने कहा: वह तो एक ऐसा बहादुर है कि अपनी नाक नीचे नहीं होने देता हैlऔर इस शादी पर गर्व करते हुए कहा: यह ऐसा बहादुर आदमी है कि इनके लिए तो कहीं विफलता की संभावना ही नहीं हैl
वास्तव में, इस शादी से अबू-सुफ़यान के दिल में बहुत हद तक दुश्मनी कम हो गई थी lऔर इस से हमें यह भी सबक़ मिलता है कि हम को बुराई का बदला भलाई से देना चाहिए क्योंकि इस के द्वारा दिल से दुश्मनी मिटते है और आत्मा में सफाई पैदा होती है और विवादों और शत्रुता का सफाया होता है l
अबू-सुफ़यान उम्मे-हबीबा के घर में
जबपवित्र मक्का के मूर्तिपूजक हुदैबिया की संधि को तोड़ दिए और जब उनको डर लगा कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-इसका इंतेक़ाम उनसे ज़रूर लेंगे तो उन लोगों ने अबू-सुफ़यान को पवित्र मदीना भेजा ताकि शांति संधि को नवीनीकृत के लिए हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-को मनाने का प्रयास करेlजब वह हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के पास जा रहे थे तो रास्ते में अपनी बेटी उम्मे-हबीबा के घर के पास से गुज़र हुआ तो उनके यहाँ थोड़ी देर के लिए जाने का इरादा कर लिए जब उनके घर को गए तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के बिस्तर पर बैठने लगे इतने में उम्मे-हबीबा उनके नीचे से बिस्तर को खींच ली और उसे मोड़ कर अलग रख दी इस पर अबू-सुफ़यान ने कहा:"मेरी बेटी, क्या बिस्तर को मुझ से बचा रही हो या मुझको बिस्तर से बचा रही हो? (मतलब मैं बिस्तर के लायक नहीं हूँ या बिस्तर मेरे लायक नहीं है?) तो उम्मे-हबीबा उत्तर दीं: नहीं बल्कि आप बिस्तर के लायक नहीं हैं,क्योंकि वह तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-का बिस्तर है और आप तो एक अपवित्र आदमी हैं और मोमिन नहीं हैंlइस पर अबू-सुफ़यान उनसे नाराज हो गया और कहा:"मैं देख रहा हूँ कि तुम मुझ से दूर होने के बाद से बिल्कुल बर्बाद हो चुकी हो lतो वह उत्तर दीं: नहीं, अल्लाह की क़सम मैं तो अच्छी हुई हूँl
जी हाँ उस वफादार औरत ने अपने मूर्तिपूजक पिता को भी ईमान के बारे में एक महान सबक दिया और वह यह है कि इस्लाम का रिश्ता और संबंध रक्त संबंधों से ऊँचा होता हैlइसलिए एक मुसलमान को अधर्मियों के साथ दिली दोस्ती नहीं करनी चाहिए, चाहे उनके साथ कितना ही नज़दीक का खूनी रिश्ता हो, बल्कि यदि आवश्कता पड़े तो इस्लाम की सरबुलंदी के लिए उनसे जंग भी की जा सकती है l
इसीलिए हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-ने अधर्मियों की ओर सेशांति संधि तोड़े जाने के बाद पवित्र मक्का पर चढ़ाई का इरादा कर लिया और उसके लिए तैयारी करली लेकिन उम्मे-हबीबा ने सब कुछ जानते पर भी अपने पिता को कुछ नहीं बतायाlबल्कि अपने पति और मुसलमानों के रहस्य को गुप्त रखने में कामयाब रहीं l
इस तरह मुसलमानों ने पवित्र मक्का को जीत लिया और कई मूर्तिपूजक इस्लाम धर्म में शामिल हो गाएlबल्कि खुद अबू-सुफ़यान भी इस्लाम धर्म को अपने गले लगा लिया, और उम्मे-हबीबा की खुशी अपने शीर्ष पर पहुँच गई, और वह इस ज़बरदस्त कृपा पर अल्लाह का शुक्रगुजार हो गईं, इसका मतलब यह है कि मुस्लिम महिला को अपने पति के रहस्य का ख़याल रखना चाहिएऔर किसी के सामने भी उसे हरगिज़ नहीं खोलना चाहिए चाहे कितना भी नज़दीकी रिश्तेदार होlकई महीलाएं ऐसी होती हैं जो अपने पति के रहस्य को बाहर करने के कारण पति से अलग हो जाती हैं और तलाक हो जाता है, और बहुत सारी महिलाएं ऐसी होती हैं जो वैवाहिक जीवन की समस्याओं के समाधान में अपने पति का साथ देती हैं और उनको रहस्य को हरगिज़ नहीं खोलती हैं lइस लिए एक शुद्ध और ईमानदार पत्नी का काम यही है कि अपने पति के रहस्यों की सुरक्षा करे और वैवाहिक संबंध को टूटने से बचाते रहे l
शुभ हदीस के कथन में उनकी भूमिका
उम्मे-हबीबा-अल्लाह उनसे खुश रहे-हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-से कई हदीसें कथित की हैं जिनकी संख्या पैंसठ हैंlउनमें से दो बुखारी और मुस्लिम शरीफ में उल्लेख है और दोनों इमाम उसपर सहमत हैं lहज़रत उम्मे-हबीबा से एक हदीस कथित है जिसमें सौतेली बेटी और पत्नी की बहन से शादी को अवैध बताया गया हैlहज़रत ज़ैनब बिनते-उम्मे-सलमा के द्वारा कथित है कि उम्मे-हबीबा-बिनते अबू-सुफ़यान ने कहा:
एक बार हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-मेरे पास आए, तो मैं बोली: हे अल्लाह के दूत! मैं आपकी शादी अपनी बहन अबू-सुफ़यान की बेटी से कराना चाहती हूँ, तो उन्होंने कहा: क्या तुम्हारी यह इच्छा है? तो मैं बोली: जी हाँ, लेकिन मैं आपको छोड़नेवाली भी नहीं हूँ, मैं तो अपनी बहन को भी इस खुशी में भाग दिलाना चाहती हूँ, तो उन्होंने कहा: निस्संदेह यह तो मेरे लिए शुद्ध नहीं है lतो मैं बोली: हे अल्लाह के रसूल! अल्लाह की क़सम हम तो इस बारे में बातचीत कर रहे थे कि दुर्रह बिनते अबू-सुफ़यान से आपकी शादी करा दी जाए, तो उन्होंने कहा: उम्मे-सलमा की बेटी? तो मैं बोली: जी हाँ, तो उन्होंने फरमाया: अल्लाह की क़सम! यदि वह मेरी बेटी के रिश्ते में न होती तो, वह तो मेरे लिए उचित नहीं है वह तो मेरे दूध शरीक भाई की बेटी है, सुवैबा ने मुझे और अबू-सलमा को दूध पिलाई इसलिए अब से तुम्हारी बेटियों और बहनों को शादी में मेरे सामने मत पेश करोl
यह हदीस उम्मे-हबीबा बिनते-अबू-सुफ़यान के द्वारा कथित हुई और यह हदीस सही है, देखिए बुखारी शरीफ हदीस नंबर ५३७२ l
इसके अलावा, उनसे फ़र्ज़ नमाजों से पहले की सुन्नतों और उनके बाद की सुन्नतों के बारे में हदीसें कथित हैं, और उनसे हज के बारे में भी हदीसें कथित हैं, खासतौर पर रात के आखिरी में और लोगों की भीड़भाड़ होने से पहले कमज़ोर महिलाओं और मर्दों के मुज्दलिफा से मिना को रवाना होने के बारे में उनसे हदीस कथित है lइसी तरह उनसे उस पत्नी के लिए इंतिज़ार और शोक के समय के विषय में भी हदीस कथित है जिसका पति मर गया हो और उनसे रोज़े के विषय में और आज़ान के बाद की दुआ के बारे में भी हदीस कथित है lउनसे इस बारे में भी हदीस कथित है कि जिस काफिला में घंटी हो उसके साथ फ़रिश्ते नहीं होते हैं lइसके इलावा उनसे और भी कई विषयों में हदीसें कथित हैं जिनमें हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की बातों और कामों का बयान हैl
उनका निधन
उम्मे-हबीबा-अल्लाह उनसे खुश रहे-का निधन ४४ हिजरी में हुआ और बकीअ में दफन हुईं lनिधन से पहले उन्होंने हज़रत आइशा को बुलाया और कहा: शायद, मेरे और आपके बीच ऐसी कुछ बातें हुई हों जो आमतौर पर सौतनों के बीच होती हैं, तो आप मुझे माफ कर दीजिए और मैं भी आपको माफ करती हूँ, इस पर हज़रत आइशा ने कहा: अल्लाह आपको माफ करे और क्षमता दे और सब भूल चूक को मिटा दे lइस पर उम्मे-हबीबा ने कहा: आपने मुझे खुश कर दिया, अल्लाह आपको खुश रखेlउसके बाद उम्मे-सलमा के पास भी इसी तरह कहला भेजी l
इस में मुसलमानों को यह सबक मिलता है कि उनको मौत से पहले क्या करना चाहिएlजी हाँ उनको माफ़ी तलाफ़ी में लगना चाहिए जैसा कि हज़रत उम्मे-हबीबा ने हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-की पवित्र पत्नियों के साथ किय था lअल्लाह उनसब से प्रसन्न रहे-
ने ज़ैनब बिनते जहश को आदेश दिया कि तुम अपनी बहन सफिय्या को सवारी के लिए एक ऊंट दे दो याद रहे उनके पास सब से अधिक सवारियां थीं तो उन्होंने उत्तर दिया: मैं आपकी यहूदन को सवारी दूंगी? यह सुन कर हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-उनसे क्रोधित हो गए और उनके साथ बातचीत बंद कर दिए और पवित्र मक्का को आने तक भी उनसे बात नहीं किए और मिना के दिनों में भी बात नहीं किए और पूरी यात्रा के दौरान भी बात नहीं किए यहाँ तक कि पवित्र मदीना को वापिस हो गए और इस तरह मुहर्रम और सफर का महीना गुज़र गया, न उनके पास आए और न उनके लिए बारी रखी यहाँ तक कि वह निराश हो गईं, लेकिन जब रबीउल अव्वल का महीना आया तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-उनके पास आए तो वह उनकी परछाई देखी è