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  2. संदेह और उनके उत्तर
  3. इस्लाम और दूसरे धर्मों में बहुविवाह: लेखक: जमाल मुह़म्मद ज़की इस्लाम में बहुविवाह से संबंधित संदेह व ऐतराज़ का रद्द और जवाब।

इस्लाम और दूसरे धर्मों में बहुविवाह: लेखक: जमाल मुह़म्मद ज़की इस्लाम में बहुविवाह से संबंधित संदेह व ऐतराज़ का रद्द और जवाब।

778 2020/06/28 2024/12/18
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इस्लाम के दुश्मन व बीमार दिल और उन जैसे लोग बहुविवाह (एक से ज़्यादा महिलाओं से विवाह करना) के बारे में उतरने वाली कु़रआन ए पाक की आयत (यानी[1])﴿ ﴾ अनुवाद: तो विवाह करो उन औरतों से जो तुम्हें पसंद आएं दो दो और तीन तीन और चार चार। [अनुवाद कंजु़ल ईमान]) को बुरा भला कहते और निंदा करते हैं कि कु़रआन ए पाक ने महिला और उसके अधिकार को किनारे रखा है जैसा के इस्लाम से पहले जाहिली युग यानी समय में था।

इस्लाम में बहुविवाह और उसके मक़सदों को स्पष्ट करने से पहले हम एक महत्वपूर्ण प्रश्न का जवाब देना चाहते हैं वह यह है कि क्या इस्लाम ने बहुविवाह बहुविवाह का निर्माण किया है या फिर यह रिवाज इस्लाम से पहले ही से मौजूद था? इतिहास को पढ़ने से पता चलता है कि बहुविवाह का रिवाज इस्लाम से बहुत पहले ही से पुराने जमाने से ही हर समय और हर समाज में के लोगों के अंदर मौजूद रहा है।

तौरात और यहूदी धर्म में बहुविवाह: तौरात में यहूदियों को एक से ज़्यादा महिलाओं से शादी करने की इजाज़त दी है और पत्नियों की संख्या और तादाद की भी कोई सीमा नहीं रखी है। लेकिन हाँ तलमूद ने चार पत्नियों की सीमा रखी है इस शर्त के साथ कि पति उन्हें खर्च देने की क्षमता रखता हो। अतः तलमूद कहता है: पुरुष को एक समय में चार से ज़्यादा पत्नियाँ रखना जायज़ नहीं जैसा के ह़ज़रत याक़ूब अ़लैहिस्सलाम ने किया जबकि पति ने पहली शादी के समय इसकी कसम ना खाई हो अगरचे ऐसी संख्या के लिए उन्हें खर्च देने की क्षमता व ताकत शर्त है। [2])

उत्पत्ति पुस्तक में है: ह़ज़रत याक़ूब अ़लैहिस्सलाम ने (31) लिया... (24) राह़ील... (25) राह़ील की दासी बलहा़.... (26) और लिया की दासी ज़ुल्फा से विवाह किया। लिहाज़ा इस तरह से एक समय में आप की चार पत्नियाँ थीं : दो बहनें यानी लिया और राह़ील और दो उनकी दासियाँ बल्ह़ा और और ज़ुल्फा।[3])

गिनती की किताब में है: ह़ज़रत दाऊद अ़लैहिस्सलाम की कई पत्नियाँ और दासिया थीं। इसी तरह उनके बेटे ह़ज़रत सुलेमान अ़लैहिस्सलाम की भी। अतः ह़ज़रत सुलेमान अ़लैहिस्सलाम की एक हज़ार से ज़्यादा पत्नियाँ थीं। इसी तरह एक यहूदी बादशाह अबिया की भी चौदह पत्नियाँ थीं।[4]) और जदऊ़न के 70 बेटे थे सब उसी की औलाद थे। क्योंकि उसकी बहुत सी पत्नियाँ थी। और उसकी दासी सरिया जो शकीम में रहती थी से भी उसका एक बेटा था जिसका नाम अबीमालिक था।....[5])

लेकिन फिर यहूदी विद्वानों ने नागरिक कानून के तहत इस बहुविवाह के रिवाज को मनसूख कर दिया यानि मिटा दिया। और फिर यहूदी असेंबलियों द्वारा भी इसे पास कर दिया गया और फिर इस तरह से इस बिल को का़नूनी व शरई़ हैसियत प्राप्त कर ली। इस्राइली शरीयत के कानून के आर्टिकल 54 में है की: पुरुष एक से ज़्यादा पत्नियाँ नहीं रख सकता है। और शादी करते समय उसे इस बात की शपथ लेना जरूरी है।[6]) लिहाजाआ इस बहुविवाह की मनादी तौरात से नहीं हुई है बल्कि शपथ लेने की वजह से हुई है।

बाइबिल और ईसाई धर्म में बहुविवाह: शुरुआत में ईसाई धर्म ने भी यहूदी धर्म की तरह बहुविवाह को माना और सत्तरवीं शताब्दी तक पादरियों ने भी इस में कोई दखल नहीं दी। लेकिन फिर इसी सत्तरवीं शताब्दी में इसकी मनादी शुरू हुई और 1750 ई. में इसको पूरो तौर से मना कर दिया गया। इसाई पादरियों का इस मामले में यह कहना था कि ऐसा करने से वे पूरे तरह अपने धर्म के प्रचार के लिए खाली हो जाएंगे और महिलाएँ और उनकी समस्याएं चर्च और उसके अनुयायियों की देखभाल करने में रुकावट नहीं बनेंगी।

यह मनादी और रुकावट धीरे धीरे शुरू हुई। पहले तो यह (यानी बहुविवाह) पादरियों के लिए ह़राम व नाजायज़ था। फिर उसके बाद पादरियों के अलावा दुसरे लोगों के लिए केवल एक ही शादी धार्मिक विधियों (यानी रस्मों और रिवाजों) के अनुसार की जाने लगी। अगर कोई ईसाई व्यक्ति दूसरी शादी करना चाहता तो धार्मिक रस्म व रिवाज के बगैर ही शादी करता। फिर एक से अधिक शादी करना पूरी तरह से ही मना कर दिया गया। लेकिन दासी रखना अभी भी जायज़ था। लेकिन 970 में एक महान पादरी अबराम सूरबानी के आदेश से दासी रखने को भी मना कर दिया गया।[7])

लिहाज़ा इस तरह से बहुविवाह से मनादी इंसान की तरफ से गढ़ी गई है। अल्लाह की तरफ से नही आई है।

फिर उन्होंने ब्रह्मचर्य (कुंवारा रहना ) का प्रोपेगंडा शुरू किया जो केवल ईसाई धर्म में ही था। वे ब्रह्मचर्य को आत्मा के सुधार, पवित्रता, विश्वास और ईमान में तरक्की और चर्च के दर्जों में ज़्यादती का कारण समझते थे। उनके ख्याल में शहवत एक बुरी और घिनौनी चीज़ थी। अतः शादी ना करने के दावे की दलील में बोलिस कहता है: मैं चाहता हूँ कि तुम बेफिक्र रहो क्योंकि कुंवारा व्यक्ति हमेशा अपने परवरदिगार के मामलों में डूबा रहता है और उसका मकसद अल्लाह को राजी़ करना रहता है। लेकिन शादीशुदा व्यक्ति दुनिया के मामलों में चिंतित और डूबा रहता है। और उसका मकसद अपनी पत्नी को राजी़ करना रहता है। क्योंकि उसका ध्यान बट जाता है। इसी तरह गैर शादीशुदा और कुंवारी महिलाएं अपने रब के मामलों के बारे में चिंतित रहती और उसी में डूबी रहती हैं और उनका मकसद शरीर और आत्मा के एतबार से पवित्र होना रहता है।[8])

इस तरह से उन्होंने शरीअ़त के अह़काम और का़नूनों को तोड़ मरोड़ दिया। और उनके विचार गलत साबित हुए जिन्हें सही बुद्धि और पवित्र फितरत कभी स्वीकार नहीं कर सकती।....... क्योंकि शादी के बिना औलाद और मानव जाति कहाँ से आएगी? प्यार, मोहब्बत, दया और मन की शांति कहाँ से प्राप्त होगी? अल्लाह ताआ़ला ने मनुष्य में जो फितरती ख्वाहिशें रखी हैं वह कैसे बुझेंगी? और उनके निकलने का क्या सही तरीका होगा? हम वह वैवाहिक घर कहाँ से लाएंगे जो बुराइयों, प्रेम के चक्कर और नाजायज़ संबंधों में पड़ने से बचाने का एक सुरक्षित क़िला है? और पुरुष और महिला के अंदर जो माँ और बाप की भावनाएं हैं वे कहाँ जाएंगी?

इस्लाम में बहुविवाह

अल्लाह तआ़ला ने मनुष्यों को सम्मान व इज़्ज़त देने, उनपर अपनी कृपाओं को पूरा करने, उन्हें शरीरिक और आत्मिक तोर पर गंदगी, बुराई और भ्रष्टाचार से पवित्र करने, उनकी पवित्रता और पाकी, शांति और सुकून, प्यार और मोहब्बत और शक्ति और ताक़त में ज़्यादति करने के लिए शादी की इजाज़त दी। अल्लाह तआ़ला इरशाद फ़रमाता है।:

अनुवाद: और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारी जिन्स (लिंग ) से औरतें (पत्नियाँ) बनाईं। (अनुवाद: कंज़ुल ईमान)

लिहाज़ा शादी पुरुष और महिला के बीच सबसे मज़बूत और गहरा रिश्ता है। यह पुरुष और महिला के हर तरह के संबंध को शामिल है। अल्लाह ताआ़ला इरशाद फरमाता है।:

अनुवाद: वही है जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा (पत्नी को ) बनाया ताकि वह उससे सुकून प्राप्त करे। (अनुवाद: कंज़ुल ईमान)

यह मनुष्य की हक़ीक़त और उसके विवाह के बारे में इस्लामी नज़रिया है और यह एक सच्चा नज़रिया है।[11])

इस्लाम ने लोगों को (कुंवारा रहना) की तरफ नहीं बुलाया है। ह़दीस़ शरीफ में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: बेशक अल्लाह ने हमें ब्रह्मचर्य के बजाय सच्चा धर्म दिया।[12]) बल्कि इस्लाम ने शादी को पवित्रता और पाकी का ज़रिया बताया है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: जो व्यक्ति अल्लाह तआ़ला से पाक और साफ-सुथरा मिलना चाहे मिलना चाहे वह आजाद महिलाओं से शादी करे।[13]) तथा अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: शादी मेरी सुन्नत है तो जिसने मेरी सुन्नत पर अमल नहीं किया तो वह मुझसे नहीं है। लिह़ाज़ा शादी करो (और अपनी संख्या बढ़ाओ) क्योंकि तुम्हारी वजह से मैं दूसरी उम्मतों पर गर्व करूंगा।[14]) तथा आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: जो व्यक्ति निकाह करने कि क्षमता रखता हो तो वह निकाह कर ले ले क्योंकि यह निगाह को ज़्यादा नीची रखता है और शर्मगाह (गुप्तांग) की ज़्यादा सुरक्षा करता है।[15])

इस्लाम ने जिन चीज़ों को जायज़ बताया है उनमें से एक बहुविवाह भी है जबकि इसकी आवश्यकता व ज़रुरत हो। इसके बारे में हम कुछ बिंदुओं (नुकतो) में बात करना चाहेंगे।

पहला:

इस्लाम ने बहु विवाह की शुरुआत नहीं की बल्कि जब इस्लाम आया आया तो यह हर समाज में बहुत मशहूर था इस्लाम से पहले जाहिली ज़माने में अरब के लोग बिना किसी शर्त के इस का अभ्यास करते थे यानी कई पत्नियाँ रखते थे।

दूसरा:

     इस्लाम लोगों के मामलों को सुधारने के लिए आया है इसीलिए बहुविवाह के इस बिना कैद और शर्त के कानून को सुधारने, इसके नुकसानों को रोकने और इसमें शर्त लगाकर इसे अच्छा बनाने के लिए इस्लाम ने इसमें दखल दी ताके सब के अधिकारों की सुरक्षा व ह़िफ़ाज़त हो। अल्लाह तआ़ला पवित्र कुरान में इरशाद फरमाता है।

अनुवाद: और अगर तुम्हें अंदेशा हो कि यतीम लड़कियों में इंसाफ ना करोगे तो निकाह में लाओ जो महिलाएं तुम्हें पसंद आए दो दो और तीन तीन और चार चार। (अनुवाद कंज़ुल ईमान)

जब यह आयत उतरी तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने चार से ज़्यादा पत्नियाँ रखने वाले लोगों को आदेश दिया कि वह केवल चार पत्नियाँ रखें और बाकी दूसरी पत्नियों को छोड़ दें। इमाम बुखारी ने अपनी किताब "अल-अदब अल-मुफ़रद" में उल्लेख किया है की ग़ैलान बिन सलमा स़क़फ़ी ने जब इस्लाम स्वीकार किया तो उनकी दस पत्नियाँ थीं। तो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उनसे इरशाद फरमाया: उनमें से चार को चुन लो।[17])

अबू दाऊद ने अपनी सनद के साथ उल्लेख किया है कि को उ़मैरह असदी बयान करते हैं जब मैं ने इस्लाम कु़बूल किया तो मेरी आठ पत्नियाँ थीं लिहाज़ा मैंने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम को इस बारे में बताया तो आप सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने मुझसे इरशाद फ़रमाया: उनमें से केवल चार को बाक़ी रखो।[18]) इमाम शाफ़ई़ अपनी मुसनाद में उल्लेख करते हैं की नोफ़ल बिन मुआ़वियह दैलमी बयान करते हैं कि जब मैं मुसलमान हुआ तो मेरे निकाह में पांच महिलाएं थीं। तो में नहीं इसके बारे में रसूल ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से पूछा तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया:  एक को अलग कर दो और चार को बाक़ी रखो। (आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का यह आदेश सुनकर) मैंने अपनी सबसे पहली पत्नी को अलग कर दिया जो बांझ थी और साठ साल से मेरे साथ थी।[19])

इस तरह इस्लाम ने बहुविवाह के कानून में केवल चार पत्नियाँ रखने की सीमा रखी और उसे एक अच्छा और दुरुस्त कानून बनाया जबकि इस्लाम से पहले इसमें कोई सीमा नहीं थी। जितनी चाहते थे उतनी पत्नियाँ रखते थे।

तीसरा:

तथा इस्लाम बहुविवाह के इस कानून को पुरुष की ख्वाहिश पर नहीं छोड़ा बल्कि इसे न्याय व इंसाफ की शर्त के साथ इंसाफ की शर्त के साथ रखा है लिहाज़ा अगर वह न्याय और इंसाफ नहीं कर सकता तो उसके लिए बहुविवाह (यानी कई पत्नियाँ रखना) जायज़ नहीं है। और इसके लिए इस्लाम ने दो प्रकार का न्याय व का ज़िक्र का ज़िक्र किया है।

पहला: अनिवार्य (ज़रूरी) न्याय व इंसाफ़: इसका मतलब यह है कि व्यवहार, खर्च, साथ रहने और रात गुजारने और सभी जा़हिरी कामों में न्याय व इंसाफ से काम लेना इस तौर पर की किसी भी पत्नी के पर उसके अधिकार में अत्याचार ना हो और किसी को भी किसी पर किसी से आगे और ऊपर ना रखे। इसका ज़िक्र व बयान क़ुरआन ए पाक की निम्नलिखित आयत में आया है।:

अनुवाद: अगर तुम्हें डर हो कि तुम इंसाफ ना करोगे तो एक।

और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: जिसकी दो पत्नियाँ हो और वह उन में न्याय व इंसाफ ना करे तो वह क़यामत के दिन ऐसी स्थिति में आएगा कि उसके आधे धड़ को लकवा मारा हुआ होगा।[21])

तथा इमाम मुस्लिम अ़ब्दुल्लाह बिन अम्र बिन अल-आ़स से उल्लेख करते हैं कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: इंसाफ करने वाले अल्लाह के यहाँ सबसे ज्यादा दयालु के दाएं तरफ नूर के मिंबरो पर होंगे। और अल्लाह के दोनों हाथ यमीन (सीधे) हैं। ये वे लोग हैं जो अपने फैसलों, अपने घर और परिवार वालों और अपनी प्रजा में न्याय व इंसाफ करते हैं।[22])

दूसरा: भावनाओं में न्याय: दिल्ली लगाओ और भावनाओं में न्याय व इंसाफ करना। लेकिन इस तरह का न्याय व इंसाफ इंसानी इरादे से बाहर है और उसे उसकी क्षमता व ताकत नहीं है। यही कारण है कि उससे इस प्रकार के न्याय की माँग भी नहीं है। इसी का बयान क़ुरआन की निम्नलिखित आयत में हुआ है।:

अनुवाद: और तुमसे कभी ना हो सकेगा की महिलाओं (यानी अपनी पत्नियों) को दिली लगाओ और प्यार में बराबर रखो भले ही तुम कितनी ही कोशिश कर लो। तो यह तो ना हो की एक तरफ पूरा झुक जाओ की दूसरी को इधर लटका हुआ छोड़ दो।

लेकिन इस प्रकार का मतलब किसी भी पत्नी पर अत्याचार करना नहीं है। लिहाज़ा किसी का दिल अगर किसी एक पत्नी की तरफ ज़्यादा झुकता है तो कम से कम दूसरी के लिए भी उसके दिल में कुछ जगह होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक ही तरफ पूरी तरह से झुक जाए और दूसरी को बिल्कुल ही छोड़ दे जैसे कि वह बेकार हो या शादीशुदा ही ना हो। ह़ज़रत ए आ़यशा रद़ियल्लाहु अ़न्हा नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की पत्नी थीं अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के दिल में उनका एक विशेष स्थान व दर्जा था और दूसरी पत्नियों की तुलना में नबी ए करीम सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम के दिल का लगाओ उनकी तरफ ज़्यादा था। यही वजह है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पत्नियों के दरमियान बारी रखकर यह इरशाद फरमाते थे: ऐ अल्लाह! यह मेरा बटवारा है जिस पर मैं ताकत रखता हूँ। लेकिन जिस की ताकत तू रखता है मैं नहीं रखता उसके बारे में मेरी निंदा न करना।[24])

लिहाज़ा दूसरी आयत से पहली आयत में बयान होने वाले बहुविवाह की इजाज़त को मना नहीं किया जा सकता। क्योंकि पहली वाली आयत में जो न्याय व इंसाफ की माँग की गई है वह जा़हिरी न्याय व इंसाफ है जबकि दूसरी आयत में जो न्याय व इंसाफ की माँग की गई है वह यह है किसी एक बीवी ही की तरफ पूरी तरह से न झुक जाए। क्योंकि दिली लगाओ व झुकाओ इंसान की ताकत और क्षमता और उसके इरादे में नहीं है। बल्कि दिल तो अल्लाह तआ़ला के क़ब्ज़े में हैं। वह जिस तरफ चाहता है उन्हें फेर देता है। यही कारण है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम यह दुआ करते थे: ऐ दिलों को फेरने वाले अल्लाह! मेरा दिल अपने दिन पर साबित रख।

लेकिन अगर एक से ज़्यादा शादी करने में जा़हिरी न्याय व इंसाफ भी खत्म हो जाने का डर हो तो फिर एक ही शादी करे और दूसरी शादी करना उसके लिए जायज नहीं है। क्योंकि अल्लाह तआ़ला इरशाद फ़रमाता है।

अनुवाद: अगर तुम्हें डर है कि तुम इंसाफ नहीं करोगे तो (केवल) एक।

फिर इसके बाद वाली आयत में इसकी ह़िकमत बयान की गई है और वह अत्याचार और जुल्म से बचना है और न्याय व इंसाफ का निर्माण करना है। अल्लाह तआ़ला इरशाद फ़रमाता है।:

अनुवाद: यह इसके ज़्यादा नज़दीक है कि तुमसे अत्याचार ना हो। (अनुवाद: कंज़ुल ईमान)

चौथा:

नियमों और शर्तों के साथ बहुविवाह की इजाज़त की निम्नलिखित हिकमतें हैं और सच तो यह है कि अल्लाह ही इसकी हिकमतों को ज़्यादा जानता है।

(1) बहुविवाह का मक़सद हैवानी ख्वाहिश की संतुष्टि या एक महिला से दूसरी महिला को बदलना नहीं है। बल्कि कई ज़रूरतों और समस्याओं का यह एक ज़रूरी समाधान है। और इस्लाम जीवन की ज़रूरतों और समस्याओं के आड़े नहीं आता। क्योंकि इस्लाम तो जीवन की तमाम समस्याओं का सही समाधान तलाश करके देता है और किसी भी ज़रूरत व परेशानी और समस्या को उसका सही समाधान दिए बग़ैर नहीं छोड़ता। तो भला इस्लाम किसी समस्या या ज़रूरत के आड़े कैसे आ सकता है।

(2) अगर हम यह मानें कि हमारे सामने दो योजनाएं या निजा़म हैं -जैसा के प्रोफ़ेसर महमूद इ़मारा कहते हैं- इनमें से एक बहुविवाह की इजाज़त देता है, पुरुष और महिला के बीच दूसरे तमाम नाजायज़ संबंधों को मना करता है और इज़्ज़त से खिलवाड़ करने वालों और व्यभिचार (ज़िना या महिला के साथ नाजायज़ संबंध रखना) करने वालों को सख्त सजा़ देता है। जबकि दूसरा निज़ाम बहुविवाह को मना करता है पुरुष और महिला के बीच प्रेम जैसे गलत संबंधों की इजाज़त देता है और व्यभिचार व ह़राम कारी करने वालों को सजा नहीं देता है। ज़ाहिर है कि ऐसी सूरत में बहुविवाह की अनुमति व इजाज़त देना जरूरी हो जाता है। लिहाज़ा इससे स्पष्ट हुआ कि पहला निज़ाम ही सबसे अच्छा और बेहतर है। क्योंकि यह महिला, उसके अधिकार और उसके बच्चों की मानवता का सम्मान करता है।[27])

(3) इस्लाम जब समाज को व्यक्ति और समूह के तौर पर देखता है तो समाज के फायदों को व्यक्ति के फायदों से आगे रखता है ताकि सबको फायदें हासिल हों और परेशानियों से बचा जा सके। अब इस नियम की रोशनी में हम यह कह सकते हैं कि सात स्थितियाँ ऐसी हैं जो बहुविवाह को चाहती हैं जिनमें से चार स्थितियाँ तलाकशुदा महिला, विधवा महिला, बूढ़ी गैर शादीशुदा महिला और बांझ महिला के साथ खास हैं। जबकि तीन स्थितियाँ पुरुष की फितरत, युद्ध की स्थिति और विश्व में अल्लाह के कानूनों से संबंधित हैं। [28])

महिला के साथ की स्थितियाँ

(1) तलाकशुदा, विधवा और बूढ़ी कुंवारी महिलाएं यह सब महरूमी की स्थिति में रहती हैं क्योंकि बहुत कम लोग ही इनसे शादी करने में दिलचस्पी रखते हैं। लिहाज़ा यह दबाव और फित्री ख्वाहिश से संघर्ष की स्थिति में जिंदगी बसर करती हैं। ऐसी सूरत में उनके सामने दो रास्ते होते हैं या तो बदचलनी का रास्ता चुन लें या क्या शादीशुदा पुरुषों की दूसरी तीसरी या चौथी पत्नियाँ बन जाएं लिहाजा ज़ाहिर है कि ऐसी सूरत में महिला को बदचलनी से सुरक्षित रखने के लिए बहुविवाह ही सिर्फ अच्छा समाधान है।

(2) महिला के बांझ होने और पति की औलाद पैदा करने की फित्री ख़्वाहिश की स्थिति। ऐसी सूरत में पति के सामने दो रास्ते हैं दो रास्ते हैं या तो फित्री ख्वाहिश को पूरा करने यानी औलाद पैदा करने के मकसद से उस बांझ पत्नी को तलाक दे और दूसरी से शादी कर ले या उसे भी बाकी रखे और उसकी देखभाल करे और दूसरी महिला से भी शादी कर ले ताकि उससे औलाद पैदा करे। जा़हिर कि पहला रास्ता दूसरे रास्ते की तुलना में ज़्यादा बुद्धि वाला और बेहतर है। क्योंकि पहले रास्ते यानी तलाक देने में बीवी का सम्मान चला जाता है और घर उजड़ जाता है जबकि दूसरे रास्ते में यह सब नहीं होता न सिर्फ यह बल्के हो सकता है कि उस बांझ महिला को दूसरी पत्नी के बच्चों से लगाओ हो जाए और अपने बच्चों से मेहरूमी के बदले उन बच्चों से उसे सुकून हासिल हो जाए।[29]) और अल्लाह जो चाहता है पैदा फ़रमाता है। [30])

पुरुष के साथ की स्थितियाँ

(1) कुछ पुरुषों के अंदर यौन ख्वाहिश बहुत ज़्यादा होती है वे अपनी ख्वाहिशें पर काबू नहीं रख सकते। लिहाज़ा उन्हें एक महिला काफी नहीं होती है या तो शारीरिक कमजोरी के कारण या किसी ऐसी बीमारी के कारण जिसका किसी ऐसी बीमारी के कारण जिसका इलाज संभव नहीं है या फिर इस वजह से कि वह महिला अब बूढ़ी हो चुकी होती है। तो क्या पुरुष अपनी ख्वाहिश को दबा दे और अपनी फितरती इच्छा को पूरा करने से रुक जाए? या फिर व्यभिचार और ज़िना के माध्यम से उसे उसकी इच्छा को पूरा करने की इजाज़त दी जाए? या फिर उसे पहली महिला को बाकी रखते हुए दूसरी महिला से शादी करने की इजाज़त दी जाए? निश्चित रूप से तीसरा समाधान ही सबसे बेहतर और सही है जो बुद्धि पर आधारित है जो फितरती इच्छा को भी पूरा करता है और इस्लामी अखलाक़ को भी बाक़ी रखता है बल्कि साथ ही साथ पहली पत्नी के सम्मान और उसकी इज्ज़त और देखभाल की भी सुरक्षा करता है।

(2) कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ हो जाती हैं जिनमें महिलाओं की संख्या पुरुषों की संख्या से ज़्यादा हो जाती है जैसा के युद्धों और बीमारियों के समय में। लिहाज़ा ऐसी स्थितियों का कैसे सामना किया जाए और ऐसा क्या किया जाए जो पुरुष और महिला और सारी मानवता के लिए लाभदायक और फ़ायदेमंद हो? यहाँ तीन समाधान और उपाय हैं।

पहला समाधान

     हर एक पुरुष केवल एक ही महिला से शादी करे और बाकी महिलाएं - प्रतिशत के अनुसार- बिना पति, बच्चों, घर और परिवार के जिंदगी बसर करें।

दूसरा समाधान

हर एक पुरुष केवल एक ही महिला से शादी करे और पत्नी के तौर पर उसे अपने साथ रखे और दूसरी महिलाओं के साथ प्रेम जैसे नाजायज़ संबंध बनाए। लिहाज़ा इस तरह उन महिलाओं की जिंदगी में पुरुष तो आ जाएंगे। लेकिन बच्चों, घर और परिवार से यह मैहरूम रहेंगी। तथा शर्म और हया की वजह से नाजायज़ संबंध से पैदा होने वाले बच्चों की हत्या अलग होगी।

तीसरा समाधान

हर पुरुष एक से ज़्यादा महिलाओं से शादी करे और उन्हें पत्नियों का दर्जा दे जो उनके लिए हक़ीक़ी घर व परिवार और बच्चों का कारण हो। और वह अपने आप को बुराइयों, गुनाहों, जुर्मों, गलत कामों और ज़मीर की निंदा से दूर रखे और अपने समाज को बदकारी और बुराई से सुरक्षित रखे।

अब सवाल यह है के इन तीनों समाधानों में से कौनसा समाधान मानवता और मर्द की मर्दानगी के लिए सबसे ज़्यादा उचित व मुनासिब और महिला के लिए सबसे ज़्यादा बेहतर और लाभदायक है? [31])

 

जवाब

बहुत ज़्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि बेशक तीसरा समाधान ही दुरुस्त और सही और सबसे बेहतर है जिसे आपातकालीन या एमरजेंसी समय में महिलाएं न केवल खुशी खुशी स्वीकार करती हैं बल्कि इसका समर्थन और इसकी माँग भी करती हैं। दूसरे विश्व युद्ध में युवाओं और पुरुषों के मरने के बाद जर्मन की महिलाओं ने पुरुषों की कमी, अपने आप और अपने बच्चों को व्यभिचार और गलत काम से बचाने और जाए इस तरीके से औलाद हासिल करने के लिए बहुविवाह (एक से ज़्यादा पत्नियाँ रखना) की माँग की। लिहाज़ा दूसरे विश्व युद्ध के बाद महिलाओं की संख्या ज़्यादा होने और पुरुषों की संख्या कम होने की परेशानी के समाधान व इलाज के लिए म्यूनिख जर्मनी में युवाओं के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने इसी बहुविवाह के निजा़म पर अमल करने का आदेश दिया। [32]

पांचवा

इस्लाम ने बहुविवाह के निजाम को सुधारने और उसे न्याय व इंसाफ की शर्त के साथ अच्छा करके जायज़ करने के बाद भी उसे महिला पर थोपा और लादा नहीं है और ना ही उसे उसके स्वीकार व कुबूल करने पर मजबूर किया है। बल्कि उसने महिला को कुबूल और मना करने का पूरा अधिकार दिया है। अतः महिला को -कुंवारी हो या विधवा- शादी के कुबूल करने और मना करने की पूरी आजा़दी हासिल है। और ना ही उसके सरपरस्त (अभिभावक) को यह अधिकार है कि वह उसे किसी व्यक्ति से शादी करने के लिए मजबूर करे। उल्लेख है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: “विधवा महिला का निकाह उस समय तक न किया जाए जब तक कि उसकी इजाज़त ना ले ली जाए और कुंवारी महिला का निकहा उस समय तक ना किया जाए जब तक कि उसकी इजाज़त ना मिल जाए। [33])”

तथा उल्लेख है कि एक नौजवान लड़की ने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास आकर शिकायत की कि उसकी मर्ज़ी के बिना उसके पिता ने उसका निकाह उसके चचेरे भाई से कर दिया है। तो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उसके पिता को बुलाकर उसे निकाह के स्वीकार और मना करने का पूरा अधिकार दे दिया। उल्लेख है की वह लड़की ह़ज़रत आ़यशा रद़ियल्लाहु अ़न्हा के पास आई और कहा मेरे पिता ने मेरा निकाह अपने भतीजे से कर दिया है ताकि मेरी वजह से उसका मर्तबा ऊंचा करें जबकि मैं उसे पसंद नहीं करती हूँ। ह़ज़रत आ़एशा रद़ियल्लाहु अ़न्हा ने फरमाया: तू नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के तशरीफ लाने तक इंतज़ार कर। इतने में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम भी तशरीफ ले आए तो उसने पूरी बात अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम को बताई। आपने उसके पिता को बुलाया और निकाह का अधिकार उस लड़की को दे दिया। वह लड़की कहने लगी। ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अपने पिता के किए हुए निकाह को बाकी रखती हूँ। मैं तो यह जानना चाहती थी कि महिलाओं को भी इस निकाह के) मामले में कुछ अधिकार है या नहीं। [34])

सारांश और ख़ुलासा

इस्लाम ने कई समस्याओं के समाधान और इलाज के लिए बहुविवाह को जायज क़रार दिया है। और उसमें न्याय व इंसाफ की कैद और शर्त लगाई है जैसा के ऊपर बयान हुआ। अतः इस्लामी शरीअ़त आपातकालीन और एमरजेंसी स्थितियों और हालातों से निबटने के लिए बहुविवाह को समाज की सुरक्षा का बेहतरीन समाधान और ज़रिया समझती है। लेकिन फिर भी बहुविवा का यह निज़ाम इतना भी नहीं फैल गया कि जिससे महिलाओं को तकलीफ हो और बीमार दिल लोगों को कु़रआन ए पाक की आलोचना और निंदा करने मौका मिले।

हां कुछ गैर मुस्लिम इंसाफ करने वाले लोगों ने इस मामले में बुद्धि, अक्लमंदी, सही सोच, न्याय और इंसाफ और निष्पक्षता से काम लिया है। यही कारण है कि वे बहुविवाह के निज़ाम की हकीकत को समझे और उसकी प्रसन्नता भी। अतः एटियनन डिनेट (Etienne Dinet) अपनी किताब "Mohammad the prophet of Allah" में कहता है: “ईसाई धर्म द्वारा अपनाए गए एकपत्नीत्व (एक ही शादी करना) निज़ाम से बहुत सारे नुक़सान हुए हैं। खासकर समाज में इसके तीन बड़े गंभीर और खतरनाक परिणाम और नतीजे सामने आए हैं: रंडीपन, गैर शादीशुदा बूढ़ी महिलाओं की ज़्यादती और अवैध (नाजायज़) बच्चे। अखलाक़ को बिगाड़ने वाली इन समाजिक बीमारियों का उन देशों में नामोनिशान ना था जिनमें पूरे तौर पर इस्लामी शरीअ़त और कानून लागू था। लेकिन उन देशों में पश्चिमी संस्कृति आ जाने जाने के बाद वहाँ भी ये बीमारियाँ दाखिल हो गईं। [35])”

एक अंग्रेज़ी लेखक महिला " London Truth Newspapers" में लिखती है: "मेरा दिल उन महिलाओं पर तरस और दुख से फटा जाता है जिनके पति नहीं है। लेकिन मेरा यह गम और दुख सब बेकार है भले ही तमाम लोग मेरे इस गम में शरीक क्यों ना हो जाएं। और इस समस्या कोई समाधान नहीं है सिवाय इसके कि पुरुषों को एक से ज़्यादा महिलाओं से शादी करने की इजाज़त दे दी जाए। बेशक इससे यह परेशानी दूर हो जाएगी और हमारी बेटियाँ घरेलू महिलाएं बन जाएंगी। क्योंकि सारी परेशानी यूरोपी पुरुष को केवल एक ही महिला से शादी करने पर मजबूर करने की वजह से है। [36])”

तथा वह समाज जो आजादी, स्वतंत्रा और अधिकार के नाम पर औरतों के लिए जायज़ा संबंधों के दरवाजे बंद कर रहा है वही उसके लिए बुराई और व्यभिचार के रास्ते तैयार कर रहा है और उसके साथ खिलौने की तरह खेल रहा है। तो अब वह किन अधिकार की बात कर रहा है? और महिला के किस सम्मान की वह माँग कर रहा? अल्लाह तआ़ला ने सच फरमाया है।:

अनुवाद: " कै़द (निकाह) में आतियाँ, ना मस्ती निकालतीं (यानी अय्याशी नहीं करती हों) और ना यार बनातीं (हों)। "(अनुवाद: कंज़ुल ईमान) लेकिन पश्चिमी देशों के हालात से ऐसा लगता है जैसे कि वहाँ के लोग कह रहे हों।:

अनुवाद: लूत के घर वालों को अपनी बस्ती से निकाल दो यह लोग तो सुथरापन चाहते हैं। (अनुवाद: कंज़ुल ईमान)


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