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ए अल्लाह! अपने ज़िक्र और शुक्र और अपनी बेहतरीन इबादत के लिए मेरी मदद कर।
तर्जुमा: ह़ज़रत मुआ़ज़ बिन रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उनका हाथ पकड़कर इरशाद फ़रमाया: "ए मुआ़ज़! अल्लाह की क़सम! बेशक मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ। (दोबारा फिर फ़रमाया) अल्लाह की क़सम! बेशक मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ। फिर "फ़रमाया: "ए मुआ़ज़! मैं तुम्हें वसियत करता हूँ कि हर नमाज़ के बाद लाज़मी तौर पर यह पढ़ा करो:
(अल्लाहुम्मा अइ़न्नी अ़ला ज़िकरिक व शुकरिक व ह़ुस्नि इ़बादतिक)
(तर्जुमा: ए अल्लाह! अपने ज़िक्र और शुक्र और अपनी बेहतरीन इबादत के लिए मेरी मदद कर।)"
बेशक नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का ह़ज़रत मुआ़ज़ बिन जबल रद़ियल्लाहु अ़न्हु का हाथ पकड़ना इसलिए था ताकि उनके दिल में अपनी मोहब्बत को और भी गहराई तक पहुंचा दें और वह अल्लाह की आज्ञा का पालन करने में जल्दी करें यहाँ तक की इसी हालत में वह अपने अल्लाह से जा मिलें।
अत: जब हज़रत मुआ़ज़ बिन जबल रद़ियल्लाहु अ़न्हु का हाथ नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के मुबारक हाथ में ठहर गया और उसने प्यार और मोहब्बत, कृपा, रह़मत, दया और हमदर्दी की ठंडक महसूस की तो फिर नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने अपनी ज़ुबान से अपने दिल की बात कही और अपनी भावनाओं को जा़हिर करते हुए दो बार इरशाद फ़रमाया: "ए मुआ़ज़! अल्लाह की क़सम! बेशक मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ। अल्लाह की क़सम! यक़ीनन मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ।" और अल्लाह की क़सम और दूसरे तरीकों से अपनी बात पर जो़र भी दिया। ताकि ह़ज़रत मुआ़ज़ को इस महान खबर की मुबारकबाद दें और फिर ह़ज़रत मुआ़ज़ अपने आपको प्यार और मोहब्बत की जन्नत में महसूस करें, उसकी नेमतों से आनंद लें और ऐसी महान हस्ती की नज़दीकी की कृपा और दया से लाभ उठाएं जो अल्लाह के सबसे ज़्यादा नज़दीक है। तथा ह़ज़रत मुआ़ज़ ने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के दरबार से यह भी शिक्षा पाए रखी थी कि: "जो जिस से मोहब्बत करेगा वह (आखिरत और जन्नत में ) उसी के साथ होगा।"
नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने ह़ज़रत मुआ़ज़ को इस बात की खुशखबरी सुनाने के बाद की आप उनसे मोहब्बत करते हैं, आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उनसे इरशाद फ़रमाया: "
"ए मुआ़ज़! मैं तुम्हें वसियत करता हूँ कि हर नमाज़ के बाद लाज़मी तौर पर यह पढ़ा करो:
(अल्लाहुम्मा अइ़न्नी अ़ला ज़िकरिक व शुकरिक व ह़ुस्नि इ़बादतिक)
(तर्जुमा: ए अल्लाह! अपने ज़िक्र और शुक्र और अपनी बेहतरीन इबादत के लिए मेरी मदद कर।)"
यानी हर फर्ज़ (अनिवार्य) और सुन्नत नमाज़ के बाद तुम अपनी ज़ुबान के साथ साथ दिल से भी सेयह दुआ जरूर पढ़ा करो। क्योंकि वास्तव में दिल ही बोलता है ज़ुबान तो उसका अनुवाद यानी तर्जुमा करती है।
यह दुआ़ मुसलमान की दुनिया और आखिरत की सभी प्रकार की भलाइयों को शामिल है। लिहाज़ा यह ह़दीस़ शरीफ नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की जवामिउ़ल कलिम ह़दीस़ों में से है यानी उन ह़दीस़ों में से है जिनमें शब्द कम हों और माना ज़्यादा हों।