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क्या बीमारी के कारण एक लंबी अवधि के लिए मोज़ों पर मसह करना जायज़ है?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
सहीह हदीस से पता चलता है कि मोज़ों पर मसह करने की एक ज्ञात (निर्धारित) अवधि है, जो कि मुक़ीम के लिए एक दिन व एक रात और मुसाफिर के लिए तीन दिन उसकी रातों समेत है।
मुस्लिम (हदीस संख्या : 276) ने शुरैह बिन हानी से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : मैं आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के पास आया ताकि उनसे मोज़ों पर मसह करने के बारे में प्रश्न करूँ। तो उन्हों ने कहा : आप अबू तालिब के बेटे को लाज़िम पकड़ें। क्योंकि वह अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ यात्रा किया करते थे। तो हमने उनसे पूछा तो उन्हों ने फरमाया : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुसाफिर के लिए तीन दिन उनकी रातों समेत और मुक़ीम के लिए एक दिन व एक रात निर्धारित किया है।
तथा तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 95), अबू दाऊद (हदीस संख्या : 157) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 553) ने खुज़ैमा बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मोज़ों पर मसह के बारे में पूछा गया तो आप ने फरमाया : ''मुसाफिर के लिए तीन दिन और मुक़ीम (निवासी) के लिए एक दिन है।'' इसे अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी में सहीह कहा है।
विद्वानों का राजेह कथन यह है कि मसह की अवधि का आरंभ अपवित्र होने (वुज़ू टूटने) के बाद पहली बार मसह करने के समय से होता है, मोज़ा पहनने के समय से नहीं। यदि उसने फज्र के लिए वुज़ू किया और मोज़े पहन लिए, फिर सुबह नौ बजे उसका वुज़ू टूट गया और उसने वुज़ू नहीं किया, फिर उसने बारह बजे वुज़ू किया, तो मसह की अवधि का आरंभ बारह बजे से होगा, और वह (अवधि) एक दिन व एक रात अर्थात चौबीस घण्टे तक रहेगी।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ''औज़ाई और अबू सौर कहते हैं : अवधि का आरंभ अपवित्र होने के बाद मसह करने के समय से है, यही इमाम अहमद से भी एक रिवायत है, और प्रमाण के रू से यही राजेह व पसंदीदा है। इब्नुल मुंज़िर ने इसे पसंद किया है, और इसी के समान उमर बिन अल-खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु से भी उल्लेख किया है।'' ''अल-मजमूअ'' (1/512) से समाप्त हुआ।
इस आधार पर आपके ऊपर अनिवार्य है कि मसह की अवधि की पांबदी करें, अगर वह समाप्त हो गई तो मोज़े पर मसह करना जायज़ नहीं है, यहाँ तक कि उसे निकाल दे और मुकम्मल तहारत (वुज़ू) की हालत में पहने। लेकिन राजेह कथन के अनुसार अवधि का समाप्त हो जाना वुज़ू को बातिल (अमान्य) नहीं करता है। अतः अगर अवधि समाप्त हो जाए और आप तहारत (वुज़ू) की हालत में हों, तो आपके इस तहारत से नमाज़ पढ़ना जायज़ है यहाँ तक कि आप अपवित्र हो जायें (यानी वुज़ू टूट जाए)।
तथा आप ने पैर धोन में जिस कष्ट का उल्लेख किया है उसका समाधान इस तरह संभव है कि आप कुर्सी आदि पर बैठकर वुज़ू करें, या दोनों पैरों को धोने के लिए झुकने के बजाय उन पर पानी उंडेल लिया करें।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया : हमारा मत यह है कि गुस्ल में तथा वुज़ू में अंगों को रगड़ना सुन्नत है, अनिवार्य नहीं है। अतः अगर वह उस पर केवल पानी बहा दे और उसे अपने हाथ से न छुए, या बहुत अधिक पानी में डुबकी लगा ले, तो उसके वुज़ू और गुस्ल दोनों के लिए काफी है। यही सभी विद्वानों का कथन है सिवाय मालिक और मुज़नी के, क्योंकि उन दोनों ने गुस्ल और वुज़ू के सहीह होने में इसकी शर्त लगाई है। ''अल-मजमूअ'' (2/214) से अंत हुआ।
हम अल्लाह से आपके लिए आरोग्य और कुशल-मंगल का प्रश्न करते हैं।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
इस्लाम प्रश्न और उत्तर