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मुसलमानों की जमाअ़त (समूह) और उनके इमाम (प्रमुख) को मज़बूती से पकड़े रहना।
तर्जुमा: ह़ज़रत अबू इदरीस अल-खौलानी रह़ीमहुल्लाह कहते हैं कि उन्होंने सैयदना अबू हुज़ैफ़ा बिन यमान रद़ियल्लाहु अ़न्हु को कहते हुए सुना: "लोग ज़्यादातर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से भलाई के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से बुराई के बारे में पूछा करता था इस डर से कि कहीं में उसमें पड़ ना जाऊं। एक दिन मैंने कहा: ए अल्लाह के रसूल हम जहालत (अज्ञान) और बुराई में पड़े हुए थे तो अल्लाह ताआ़ला हमारे लिए यह भलाई (यानी इस्लाम) लाया। तो क्या इस भलाई के बाद भी कोई बुराई होगी? "आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया:" हाँ।" मैंने कहा:" फिर क्या उस बुराई के बाद कोई भलाई होगी?" आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "हाँ, लेकिन उसमें गंदगी होगी। (यानी लोगों के दिल पाक और साफ नहीं होंगे)" मैंने कहा: "वह गंदगी क्या होगी? " आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "ऐसी क़ौम होगी जो मेरे तरीके़ के खिलाफ तरीक़ा चुनेगी और मेरे रास्ते के अलावा किसी और के रास्ते पर चलेगी। उनकी कुछ बातें तुम्हें भी भली मालूम होगीं और कुछ बुरी।" मैंने कहा: " उस भलाई के बाद भी बुराई होगी?" आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "हाँ, ऐसे दावा करने वाले होंगें जो जहन्नम के दरवाज़ों की तरफ बुलाएंगे। जो उनकी बात मान लेगा वह उसे जहन्नम में ढकेल देंगे।" मैंने कहा: "ए अल्लाह के रसूल! हमसे उनकी विशेषताएं बयान कीजिए।" आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "वह हमारी कौम से होंगे और हमारी ही ज़ुबान में बात करेंगे।" मैंने कहा: "अगर मैं वह समय पाऊं तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मुझे क्या हुक्म देते हैं?" आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "मुसलमानों की जमाअ़त (समूह) और उनके इमाम (प्रमुख) को मज़बूती से पकड़े रहना।" मैंने कहा: "अगर उस समय उनकी कोई जमाअ़त (समूह) ही ना हो और ना ही इमाम (प्रमुख)?" तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: "उन तमाम फिर्क़ो से अलग हो जाना अगर चे तुझे किसी पेड़ की जड़ चबा कर ही गुजा़रा करना पड़े यहाँ तक की उसी हालत में तुझे मौत आ जाए।"
ह़दीस़ शरीफ के शुरू में ह़ज़रत ह़ुज़ैफ़ा बिन यमान रद़ियल्लाहु अ़न्हु अपने बारे में बताते हैं कि वह नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से ज़्यादातर बुराई के बारे में पूछा करते थे जबकि दूसरे लोग ज़्यादातर भलाई के बारे में पूछते थे और इसका कारण बयान करते हैं कि मैं बुराई के बारे में इस वजह से पूछा करता था कि कहीं ऐसा ना हो कि मैं उस बुराई में पड़ जाऊं, उससे मुझे परेशानी हो और फिर उससे निकलना ही मेरे लिए मुश्किल हो जाए। क्योंकि जब इंसान को पहले ही से बुराई का पता चल जाता है तो वह पहले ही से उसका सामना करने, उससे बचने और छुटकारा पाने की अच्छी तरह से तैयारी रखता है और बुद्धिमान वह है जो बुराई का ज्ञान इसलिए प्राप्त करे ताकि उस से बचे और चौकन्ना रहे नाकि इसलिए कि वह बुराई को करे। और नियम है बुराई का ज्ञान भलाई के ज्ञान से पहले होना चाहिए। क्योंकि फायदों के हासिल करने के मुकाबले में नुकसानों से बचना और उनको टालना ज़्यादा ज़रूरी है जैसा कि उ़लमा फरमाते हैं।
अत: ह़ज़रत ह़ुज़ैफ़ा को जब उनके तमाम सवालों के जवाब मिल गए उसके बाद सबसे अहम सवाल के द्वारा नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से बातचीत शुरू की। क्योंकि यही सबसे अहम सवाल था और पिछले तमाम सवालों से मकसद भी यही था। लिहाज़ा आपने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से पूछा कि ए अल्लाह के रसूल! अगर वह बुराई का समय मुझे पाल है यानी अगर वह बुराई मेरी जिंदगी में ही पेश आ जाए तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मेरे लिए किस चीज़ का हुक्म देते हैं? तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "मुसलमानों की जअ़मात (समूह) और उनके इमाम को मज़बूती से पकड़े रहना।" यानी जो बेहतर अखलाक और आदतें और अच्छे व्यवहार वे करें वही तू भी करना और इबादतों और मामलों में उन्हीं के तौर-तरीके़ पर चलना।
मुसलमानों की जमाअ़त (समूह): वे लोग हैं जो इस्लाम को उसके असली संदर्भों से पहचानें और ऐसे समय में भी क़ुरआन और सुन्नत पर मज़बूती से अमल करें जबकि इस्लाम के मानने और उस पर अमल करने वालों की तादाद कम हो जैसा कि शुरू जमाने में थी।
इंसान उस जमाअ़त को बहुत मुश्किल से पहचान पाएगा। क्योंकि उन लोगों की तादाद बहुत कम होगी और वे किसी एक जगह में होंगे। शायद वह जगह मक्का और मदीना के बीच हो जैसा कि मुस्लिम वगैरह की सही़ह़ ह़दीस़ में हज़रत इब्ने उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु कहते हैं कि अल्लाह के रसूल ने फ़रमाया:
"बेशक इस्लाम शुरू में अजनबी था और जल्द दोबारा अजनबी हो जाएगा और दो मस्जिदों (मस्जिदे ह़राम और मस्जिदे नबवी) में इस तरह सिमटकर आ जाएगा जिस तरह सांप अपने बिल में सिमट जाता है।"
और मुसलमानों का इमाम (प्रमुख) उस दिन वह होगा जो उनमें सबसे ज़्यादा ज्ञान (इ़ल्म) रखता होगा और सबसे ज़्यादा परहेज़गार (नेक) होगा जिसे वे मुसलमान आपस में इत्तेफाक व एकता और रज़ा से अपना वाली व अमीर (प्रमुख) और हा़किम बनाएंगे।