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इस्लाम में परिवार का स्थान

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2529 2013/09/23 2024/12/18

इस्लाम परिवार, तथा पुरूषों, महिलाओं और बच्चों के योगदान के बारे में क्या दृष्टि कोण रखता है ?

 

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

परिवार के निर्माण, उस के संगठन और उस की रक्षा के बारे में इस्लाम के योगदान को जानने से पूर्व हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस्लाम से पूर्व और पिश्चमी देशों में उस समय परिवार की स्थिति क्या थी।

इस्लाम से पूर्व परिवार ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार पर स्थापित था, समूचित मामला केवल पुरूषों के नियन्त्रण में होता था, स्त्री या लड़की अत्याचार ग्रस्त और अपमानित होती थी। इस का उदाहरण यह हैं कि यदि मर्द मर जाता और अपने पीछे पत्नी छोड़ता था तो उस के उस पत्नी के अलावा दूसरी औरत से जन्मित बेटे का यह अधिकार होता था कि उस से विवाह कर ले और उस पर नियन्त्रण रखे, या उसे किसी दूसरे से विवाह करने से रोक दे, तथा केवल पुरूष लोग ही वारिस होते थे, महिलाओं और बच्चों का वरासत में कोई हिस्सा नहीं होता था, तथा महिला को, चाहे वह माँ हो या बेटी या बहन, लज्जा और अपमान की दृष्टि से देखा जाता था ; क्यों इस बात की संभावना होता थी कि लड़ाईयों में उसे बंदी बना लिया जाये जिस के परिणाम स्वरूप वह अपने परिवार के लिए रूसवाई और लज्जा का कारण बन जाये। इसी कारण मर्द अपनी दूध पीती बेटी को जीवित गाड़ देता था, जैसाकि अल्लाह तआला ने इस का उल्लेख करते हुये फरमाया है : "उन में से जब किसी को लड़की होने की सूचना दी जाए तो उस का चेहरा काला हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है। इस बुरी खबर के कारण लोगों से छुपा छुपा फिरता है। सोचता है कि क्या इस को अपमानता के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे। आह! क्या ही बुरे फैसले करते हैं।" (सूरतुन-नह्ल : 58-59)

तथा परिवार अपने बड़े अभिप्राय में - अर्थात गोत्र के अर्थ में - एक दूसरे की सहायता और समर्थन करने पर आधारित था यद्यपि उस में किसी दूसरे पर अत्याचार ही क्यों न होता हो। जब इस्लाम आया तो उस ने इन सब को मिटा दिया, न्याय को स्थापित किया और हर अधिकार वाले को उस का अधिकार प्रदान किया यहाँ तक कि दूध पीते बच्चे, बल्कि माँ की पेट से गिर जाने वाले बच्चे को भी सम्मान और आदर प्रदान किया और उस के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया।

वर्तमान समय में पश्चिम में परिवार की स्थिति पर दृष्टि रखने वाला टूटे और बिखरे हुये परिवारों को पायेगा, मां बाप अपने बेटों पर वैचारिक या नैतिक तौर पर नियन्त्रण नहीं रखते हैं ; बेटे को यह अधिकार है कि वह जहाँ चाहे जाये या जो चाहे करे, इसी प्रकार बेटी को यह अधिकार है कि जिस के साथ चाहे उठे बैठे और जिस के साथ चाहे रात बिताये, यह सब कुछ आज़ादी और अधिकार देने के नाम पर होता है, परन्तु इस के बाद इस का परिणाम क्या होता है ? टूटे और बिखरे हुए परिवार, बिना विवाह के पैदा हुये बच्चे, ऐसे पिता और मायें जिन का न कोई देख रेख करने वाला है और न ही कोई पूछने वाला है, और जैसा कि कुछ विद्वानों ने कहा है कि यदि आप इन लोगों की स्थिति का पता लगाना चाहते हैं तो जेलों, अस्पतालों और बूढ़े और कमज़ोर लोगों के केन्द्रों पर जायें, बेटे अपने बापों को केवल अवसरों और ईदों पर ही जानते हैं।

सारांश यह कि गैर मुस्लिमों के यहाँ परिवार टूटा हुआ है, और जब इस्लाम आया तो उस ने परिवार की स्थापना की, उसे हानि पहुँचाने वाली चीज़ों से सुरक्षित किया, उस की मज़बूती की रक्षा की और उसके प्रत्येक सदस्य को उस के जीवन के अन्दर एक महत्वपूर्व रोल दिया : अत: इस्लाम ने महिला को एक माँ, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान प्रदान किया। जहाँ तक एक माँ के रूप में उस का सम्मान करने की बात है तो अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : "एक व्यक्ति अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा कि ऐ अल्लाह के सन्देष्टा! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है ? आप ने कहा: तेरी माँ, उसने कहा कि फिर कौन ? आप ने फरमाया : तुम्हारी माँ, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने फरमाया: तुम्हारी माँ, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने कहा : तुम्हारे पिता, फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस नं.: 2548)

तथा एक बेटी के रूप में उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायम : "जिस की तीन बेटियाँ या तीन बहनें, या दो बेटियाँ या दो बहनें हैं, जिन्हें उस ने अच्छी तरह रखा और उन के बारे में अल्लाह तआला से डरता रहा, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा।" (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)

तथा एक पत्नी के रूप में भी उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम मे सब से अच्छा वह है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा हो, और मैं तुम सब में अपनी पत्नी के लिए सब से अच्छा हूँ।" इसे तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है (हदीस संख्या : 3895) और हसन कहा है।

तथा इस्लाम ने महिला को वरासत में उस का हक़ दिया है, और बहुस सारे मामले में उसे पुरूषों के समान अधिकार प्रदान किया है, पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "महिलाएं, पुरूषों के समान हैं।" इस हदीस को अबू दाऊद ने अपनी सुनन (हदीस नं.:236) में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस से रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद (हदीस संख्या : 216) में इसे सहीह कहा है।

तथा इस्लाम ने पत्नी के प्रति अच्छे व्यवाहार की वसीयत की है, और स्त्री को पति चयन करने की आज़ादी दी है, और बच्चों के प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा उस के ऊपर भी डाला है।

इस्लाम ने माँ बाप पर उन के बच्चों के प्रशिक्षण की एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाली है: अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्हों ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : "तुम में से प्रत्येक व्यक्ति निरीक्षक (निगराँ) है, और तुम में से हर एक से उस की रईयत (जनता और अधीन लोगों) के बारे में पूछ गछ की जायेगी, इमाम निरीक्षक है और उस से उसकी प्रजा के बारे में पूछ गछ होगी, आदमी अपने परिवार में निरीक्षक है और उस से उसके अधीन लोगों के बारे में पूछ गछ होगी, औरत अपने पति के घर में निरीक्षक है और उस से उस के अधीनस्थ के बारे में पूछ गछ होगी, और नौकर अपने मालिक के माल के बारे में निरीक्षक है और उस से उस के देखे रेख के बारे में पूछ गछ किया जायेगा।" वह कहते हैं : मैं ने ये बातें अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सुनी हैं। (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 853, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 1829)

इस्लाम मरते दम तक माता पिता का आदर सम्मान करने, उनकी देखे रेख करने और उनकी बात मानने के सिद्धान्त को स्थापित करने का बड़ा लालायित है : अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया :

"और तेरा पालनहार साफ-साफ आदेश दे चुका है कि तुम उस के अलावा किसी अन्य की पूजा न करना और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना यदि तेरी मौजूदगी में उन में से एक या वे दोनों बुढ़ापे को पहुँच जायें तो उनके आगे उफ तक न कहना न उन्हें डांट डपट करना, परन्तु उनके साथ मान और सम्मान के साथ बात चीत करना।" (सूरतुल इस्रा : 23)

तथा इस्लाम ने परिवार के सतीत्व, उस की पवित्रता, पाकदामनी, और उस के नसब (वंशावली) की रक्षा की है, अत: शादी विवाह करने का प्रोत्साहन दिया है, और महिलोओं और पुरूशों के बीच मिश्रण से रोका है।

और हर परिवार के हर सदस्य के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य का छेत्र निर्धारित किया है, अत: माता पिता, इस्लामी प्रिशक्षण, बेटे, सुनना और बात मानना, तथा प्यार और सम्मान के आधार पर माता पिता के अधिकारों की रक्षा, ये सारे तत्व इस पारिवारिक स्थिरता के सब से बड़े गवाह और साक्षी हैं, जिस की गवाही दुश्मनों तक ने भी दी है।

 

इस्लाम परिवार, तथा पुरूषों, महिलाओं और बच्चों के योगदान के बारे में क्या दृष्टि कोण रखता है ?

 

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

परिवार के निर्माण, उस के संगठन और उस की रक्षा के बारे में इस्लाम के योगदान को जानने से पूर्व हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस्लाम से पूर्व और पिश्चमी देशों में उस समय परिवार की स्थिति क्या थी।

इस्लाम से पूर्व परिवार ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार पर स्थापित था, समूचित मामला केवल पुरूषों के नियन्त्रण में होता था, स्त्री या लड़की अत्याचार ग्रस्त और अपमानित होती थी। इस का उदाहरण यह हैं कि यदि मर्द मर जाता और अपने पीछे पत्नी छोड़ता था तो उस के उस पत्नी के अलावा दूसरी औरत से जन्मित बेटे का यह अधिकार होता था कि उस से विवाह कर ले और उस पर नियन्त्रण रखे, या उसे किसी दूसरे से विवाह करने से रोक दे, तथा केवल पुरूष लोग ही वारिस होते थे, महिलाओं और बच्चों का वरासत में कोई हिस्सा नहीं होता था, तथा महिला को, चाहे वह माँ हो या बेटी या बहन, लज्जा और अपमान की दृष्टि से देखा जाता था ; क्यों इस बात की संभावना होता थी कि लड़ाईयों में उसे बंदी बना लिया जाये जिस के परिणाम स्वरूप वह अपने परिवार के लिए रूसवाई और लज्जा का कारण बन जाये। इसी कारण मर्द अपनी दूध पीती बेटी को जीवित गाड़ देता था, जैसाकि अल्लाह तआला ने इस का उल्लेख करते हुये फरमाया है : "उन में से जब किसी को लड़की होने की सूचना दी जाए तो उस का चेहरा काला हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है। इस बुरी खबर के कारण लोगों से छुपा छुपा फिरता है। सोचता है कि क्या इस को अपमानता के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे। आह! क्या ही बुरे फैसले करते हैं।" (सूरतुन-नह्ल : 58-59)

तथा परिवार अपने बड़े अभिप्राय में - अर्थात गोत्र के अर्थ में - एक दूसरे की सहायता और समर्थन करने पर आधारित था यद्यपि उस में किसी दूसरे पर अत्याचार ही क्यों न होता हो। जब इस्लाम आया तो उस ने इन सब को मिटा दिया, न्याय को स्थापित किया और हर अधिकार वाले को उस का अधिकार प्रदान किया यहाँ तक कि दूध पीते बच्चे, बल्कि माँ की पेट से गिर जाने वाले बच्चे को भी सम्मान और आदर प्रदान किया और उस के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया।

वर्तमान समय में पश्चिम में परिवार की स्थिति पर दृष्टि रखने वाला टूटे और बिखरे हुये परिवारों को पायेगा, मां बाप अपने बेटों पर वैचारिक या नैतिक तौर पर नियन्त्रण नहीं रखते हैं ; बेटे को यह अधिकार है कि वह जहाँ चाहे जाये या जो चाहे करे, इसी प्रकार बेटी को यह अधिकार है कि जिस के साथ चाहे उठे बैठे और जिस के साथ चाहे रात बिताये, यह सब कुछ आज़ादी और अधिकार देने के नाम पर होता है, परन्तु इस के बाद इस का परिणाम क्या होता है ? टूटे और बिखरे हुए परिवार, बिना विवाह के पैदा हुये बच्चे, ऐसे पिता और मायें जिन का न कोई देख रेख करने वाला है और न ही कोई पूछने वाला है, और जैसा कि कुछ विद्वानों ने कहा है कि यदि आप इन लोगों की स्थिति का पता लगाना चाहते हैं तो जेलों, अस्पतालों और बूढ़े और कमज़ोर लोगों के केन्द्रों पर जायें, बेटे अपने बापों को केवल अवसरों और ईदों पर ही जानते हैं।

सारांश यह कि गैर मुस्लिमों के यहाँ परिवार टूटा हुआ है, और जब इस्लाम आया तो उस ने परिवार की स्थापना की, उसे हानि पहुँचाने वाली चीज़ों से सुरक्षित किया, उस की मज़बूती की रक्षा की और उसके प्रत्येक सदस्य को उस के जीवन के अन्दर एक महत्वपूर्व रोल दिया : अत: इस्लाम ने महिला को एक माँ, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान प्रदान किया। जहाँ तक एक माँ के रूप में उस का सम्मान करने की बात है तो अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : "एक व्यक्ति अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा कि ऐ अल्लाह के सन्देष्टा! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है ? आप ने कहा: तेरी माँ, उसने कहा कि फिर कौन ? आप ने फरमाया : तुम्हारी माँ, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने फरमाया: तुम्हारी माँ, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने कहा : तुम्हारे पिता, फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस नं.: 2548)

तथा एक बेटी के रूप में उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायम : "जिस की तीन बेटियाँ या तीन बहनें, या दो बेटियाँ या दो बहनें हैं, जिन्हें उस ने अच्छी तरह रखा और उन के बारे में अल्लाह तआला से डरता रहा, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा।" (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)

तथा एक पत्नी के रूप में भी उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम मे सब से अच्छा वह है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा हो, और मैं तुम सब में अपनी पत्नी के लिए सब से अच्छा हूँ।" इसे तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है (हदीस संख्या : 3895) और हसन कहा है।

तथा इस्लाम ने महिला को वरासत में उस का हक़ दिया है, और बहुस सारे मामले में उसे पुरूषों के समान अधिकार प्रदान किया है, पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "महिलाएं, पुरूषों के समान हैं।" इस हदीस को अबू दाऊद ने अपनी सुनन (हदीस नं.:236) में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस से रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद (हदीस संख्या : 216) में इसे सहीह कहा है।

तथा इस्लाम ने पत्नी के प्रति अच्छे व्यवाहार की वसीयत की है, और स्त्री को पति चयन करने की आज़ादी दी है, और बच्चों के प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा उस के ऊपर भी डाला है।

इस्लाम ने माँ बाप पर उन के बच्चों के प्रशिक्षण की एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाली है: अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्हों ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : "तुम में से प्रत्येक व्यक्ति निरीक्षक (निगराँ) है, और तुम में से हर एक से उस की रईयत (जनता और अधीन लोगों) के बारे में पूछ गछ की जायेगी, इमाम निरीक्षक है और उस से उसकी प्रजा के बारे में पूछ गछ होगी, आदमी अपने परिवार में निरीक्षक है और उस से उसके अधीन लोगों के बारे में पूछ गछ होगी, औरत अपने पति के घर में निरीक्षक है और उस से उस के अधीनस्थ के बारे में पूछ गछ होगी, और नौकर अपने मालिक के माल के बारे में निरीक्षक है और उस से उस के देखे रेख के बारे में पूछ गछ किया जायेगा।" वह कहते हैं : मैं ने ये बातें अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सुनी हैं। (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 853, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 1829)

इस्लाम मरते दम तक माता पिता का आदर सम्मान करने, उनकी देखे रेख करने और उनकी बात मानने के सिद्धान्त को स्थापित करने का बड़ा लालायित है : अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया :

"और तेरा पालनहार साफ-साफ आदेश दे चुका है कि तुम उस के अलावा किसी अन्य की पूजा न करना और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना यदि तेरी मौजूदगी में उन में से एक या वे दोनों बुढ़ापे को पहुँच जायें तो उनके आगे उफ तक न कहना न उन्हें डांट डपट करना, परन्तु उनके साथ मान और सम्मान के साथ बात चीत करना।" (सूरतुल इस्रा : 23)

तथा इस्लाम ने परिवार के सतीत्व, उस की पवित्रता, पाकदामनी, और उस के नसब (वंशावली) की रक्षा की है, अत: शादी विवाह करने का प्रोत्साहन दिया है, और महिलोओं और पुरूशों के बीच मिश्रण से रोका है।

और हर परिवार के हर सदस्य के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य का छेत्र निर्धारित किया है, अत: माता पिता, इस्लामी प्रिशक्षण, बेटे, सुनना और बात मानना, तथा प्यार और सम्मान के आधार पर माता पिता के अधिकारों की रक्षा, ये सारे तत्व इस पारिवारिक स्थिरता के सब से बड़े गवाह और साक्षी हैं, जिस की गवाही दुश्मनों तक ने भी दी है।

 

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