1. सामग्री
  2. अल्लाह के पैगंबर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का गैर-मुस्लिमों के साथ व्यवहार
  3. यदि ग़ैर-मुस्लिम हमें सलाम करें, तो उन्हें कैसे जवाब देना चाहिए?

यदि ग़ैर-मुस्लिम हमें सलाम करें, तो उन्हें कैसे जवाब देना चाहिए?

इमाम बुख़ारी अपनी स़ह़ीह़ बुख़ारी में अब्दुल्ला बिन उमर रद़ियल्लाहू अ़न्हू से उल्लेख किया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: 'जब तुम्हें यहूदी सलाम करे और अगर उनमें से कोई कहे: अस्सामु अ़लैक (यानी तुझ पर मौत हो) तो  उत्तर में केवल “व अ़लैक” (और तुझ पर भी) कह दिया करो।

साथ ही, इमाम बुख़ारी कहते हैं कि 'उ़स़मान इब्न -ए- अबी शैबा ने हमें यह बताया और कहा: हम से हेशम ने बयान किया: उन्हें अब्दुल्ला इब्न -ए- अबी बक्र इब्न -ए- अनस ने ख़बर दी: उनसे अनस इब्न-ए- मलिक ने बयान किया कि नबी -ए- करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फरमाया: “जब अहल-ए- किताब (यहूदी और ईसाई) तुम्हें सलाम करें, तो उसके जवाब में “व अ़लैक” कहो” (स़ह़ीह़ बुख़ारी: 7/132, मुस्लिम (7/3)

तो इस तरह से जवाब देने पर, दोनों पक्षों की भावनाएं सुरक्षित रहेंगी: मुस्लिम अपने आत्मसम्मान को महसूस करेंगा, और उसके दुश्मन के शब्दों से उसे बिल्कुल भी नुक़स़ान नहीं होगा, और ग़ैर-मुस्लिम यदि उसे ऐसा उत्तर नहीं मिला जो उसके घृणा को उकसाए, तो वह लाचार हो जाएगा, और यह भी हो सकता है कि अल्लाह ने उसके लिए भलाई लिखी हो, तो उस पर इस तरह का बरताव -यानि उसे इसके सलाम का जवाब प्राप्त करना- प्रभावित करे और फ़िर वह उसे देख कर इस्लाम ले आए।

क्या हम काफ़िरों के लिए हिदायत और मग़फ़िरत की प्रार्थना कर सकते हैं?

इमाम बुख़ारी ने अपनी सहीह बुख़ारी में हज़रत अबू हुरैरा रद़ियल्लाहू अ़न्हू से रिवायत की है कि उन्होंने कहा: तुफ़ैल इब्न अम्र रद़ियल्लाहू अ़न्हू नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की सेवा में आए और कहा: “ऐ अल्लाह के रसूल! दौस  जनजाति के लोगों ने  आज्ञा का उल्लंघन किया और इस्लाम स्वीकार करने से इंकार कर दिया इसलिए उन्हें बद्दुआ दीजिए। ' लोगों ने सोचा कि नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम उन्हें बद्दुआ देंगे, लेकिन नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “ऐ अल्लाह! दौस की जनजाति को हिदायत दे और उन्हें मेरे पास (इस्लाम के दायरे में) ले आ।

 इब्न हजर कहते हैं: मुशरिकों को बद्दुआ देने की अनुमति है, और यह (बद्दुआ देना)उन लोगों के बारे में मना है, जिनका दिल रखना मक़सूद और जिनकी इस्लाम में प्रवेश करने की आशा है।

 दोनों बातों के बीच संगति इस प्रकार होगी बद्दुआ देना उस सूरत में जाइज़ है जब  उस बद्दुआ के माध्यम से उनके  कुफ्र पर अड़े रहने के कारन उन्हें फटकारना मक़्सद हो, और यह निषेध (मना) तभी है जब उनके कुफ़्र पर निधन होने की बद्दुआ की जाए। और नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का इस दुआ में उनकी हिदायत का ज़िकर करना यह दर्शाता है कि दूसरी हदीस ए मुबारक में आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की दुआ "मेरी क़ोम को क्षमा करदे और इन्हें बख्श् दे क्योंकी वे नादान हैं" से मुराद उनके उन विद्रोहों और अत्याचारों की क्षमा है जो उन्होंने आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पर किये थे न की उनके सभी पापों की क्षमा कियोंकि कुफ़्र ऐसा पाप है जिसे (इस्लाम क़बूल किये बिना) क्षमा नहीं किया जाता। या “उन्हें माफ करदे” का अर्थ है “उन्हें इस्लाम की हिदायत दे ताकि उनकी (कुफ्र के पाप की) माफी वैध हो सके” या इसका मतलब यह है कि अगर वे इस्लाम में परिवर्तित होते हैं, तो उन्हें माफ कर दे, और अल्लाह सबसे बेहतर जानता है।” फ़तह -अल-बारी (11/196)

इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में ह़ज़रत अबू हुरैरा से रिवायत की है वह कहते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया: “मैंने अपने खुदा से अपनी माँ के लिए माफी मांगने की अनुमति मांगी, लेकिन उसने मुझे अनुमति नहीं दी। और मैंने उस से अपनी क़ब्र पर जाने की अनुमति मांगी, तो उसने मुझे अनुमति दे दी।“ (3/65)

इसलिए, मुशरिकों के लिए मग़फ़िरत व बख़शिश की दुआ करने की अनूमती नहीं है अगरचे कोई भी कारण हो।

(इस ह़दीस़़ शरीफ से इस बात की दलील पकड़ना हरगिज़ सही नहीं है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ गैर-मुस्लिमा थीं। बल्कि सही यह है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के धर्म पर ईमान वाली थीं। जैसा कि इमाम इब्न ह़जर अल-असकलानी और इमाम अल-सुयुती और अन्य विद्वानों ने इसकी तहकीकात की है। और ह़दीस़़ शरीफ में है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "हमेशा अल्लाह मुझे सम्मानित पीठों और पवित्र गर्भाशयों में स्थानांतरित करता रहा यहाँ तक कि मुझे मेरे माता-पिता से पैदा किया।” और एक अन्य ह़दीस़ में है: “मैं हमेशा पवित्र पुरुषों की पीठ से पवित्र महिलाओं की पीठों में स्थानांतरित होता रहा।” और मुशरिकों (गैर-मुस्लिमों) के बारे में अल्लाह फरमाता है: ﴿إِنَّمَا الْمُشْرِكُون نَجَسٌ ﴾ यानी मुशरिक तो निरे नापाक हैं। इसीलिए ज़रूरी है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के सभी माता-पिता मुसलमान हों और कोई भी गैर-मुस्लिम न हो। क्योंकि गैर-मुस्लिम नापाक हैं जैसा कि क़ुरआन में बताया गया और नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पाक व पवित्र पुश्तों व गर्भाशयों से होते हुए पाक और पवित्र पुश्त व गर्भाशय से पैदा हुए हैं। लिहाज़ा साबित हुआ कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ ह़ज़रत आमना और पिता ह़ज़रत अ़ब्दुल्लह दोनों मुसलमान और जन्नती हैं। इस मुद्दे की और ज़्यादा दलीलों के लिए आला ह़ज़रत इमाम अहमद रज़ा खान की किताब "शमुल-उल-इस्लाम लि उसूल अल-किराम" और इमाम जलाल-उद-दीन सुयुति की नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के माता-पिता की निजता के बारे में लिखी किताबें पढ़ें। उन्होंने इस बारे में कई किताबें लिखी हैं जिनमें से एक है "अल-ताज़ीम व अल-मिन्नह फी अन्ना अबवय अल-रसूल फी अल-जन्नह" है। अनुवादक)

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