1. सामग्री
  2. अल्लाह के पैगंबर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का गैर-मुस्लिमों के साथ व्यवहार
  3. उनसे मुलाकात करने जाना और उनके साथ संबंध निभाना।

उनसे मुलाकात करने जाना और उनके साथ संबंध निभाना।

(5) उनसे मुलाकात करने जाना और उनके साथ संबंध निभाना।

ह़ज़रत अनस बिन मालिक रद़ियल्लाहु अ़न्हु बयान करते हैं: "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की एक यहूदी लड़के ने जौ की रोटी और बदबूदार तेल की खाने की दावत की।" इस ह़दीस़ को इमाम अह़मद बिन ह़म्बल ने अपनी किताब मुसनद में उल्लेख किया है। और किताब "इरवा अल-ग़लील" में कहा गया है कि यह ह़दीस़ शैखैन की शर्तों के अनुसार सही है।

और इमाम बुखारी ह़ज़रत असमा रद़ियल्लाहु अ़न्हा से बयान करते हैं कि वह कहती हैं:" मेरी माँ मुशरिका (गैर-मुस्लिमा) थीं, वह नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के क़ुरैश के साथ समझौता के समय अपने पिता के साथ (मदीना मुनव्वरह) आईं। मैने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से उनके संबंध पूछा कि मेरी माँ आईं हैं और इस्लाम से अलग हैं। (तो क्या मैं उनके साथ संबंध निभाऊं?) नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "हाँ, अपनी माँ के साथ संबंध निभाओ।" (7/17)

तथा इमाम बुखारी बयान करते हैं कि हमसे ह़दीस़़ बयान की मूसा बिन इस्माइल ने, उनसे अ़ब्दुल अज़ीज़ बिन मुस्लिम ने, उनसे अ़ब्दुल्लाह बिन दीनार ने, व। कहते हैं कि मैंने इब्ने उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हुमा को कहते हुए सुना कि ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने एक रेशमी जोड़ा बिकते हुए देखा। तो उन्होंने कहा: "अल्लाह के रसूल! कितना अच्छा होगा कि अगर आप यह जोड़ा खरीद लें और जुमे के दिन और जब लोग मिलने के लिए आपके पास आएं तो इसे पहनें।" अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वाले वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "इसको (दुनिया में) केवल वो लोग पहनते हैं जिनका आखिरत में कोई हिस्सा नहीं।" फिर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के पास कुछ रेशमी जोड़े आए तो आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उनमें से एक जोड़ा ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु को दे दिया। ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने कहा:" (अल्लाह के रसूल!) में इसे कैसे पहन सकता हूँ जबकि इसके बारे में पहले आपने मुझसे ऐसा ऐसा कहा था?" अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "मैंने यह जोड़ा तुमको पहनने के लिए नहीं दिया है बल्कि इसे बैच दो या किसी को पहना दो।" तो ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने वह जुब्बा मक्के में मौजूद अपने एक भाई को जो उस समय मुसलमान नहीं हुए थे भिजवा दिया था।

इन ह़दीस़ों से पता चलता है कि गैर-मुस्लिमों की से मुलाकात करने जाना और अगर वह रिश्तेदार हों तो उनके साथ संबंध निभाना जायज़ है। क्योंकि इससे दिलों में नजदीकी बढ़ती है। और हो सकता है कि अल्लाह कृपा करे और इसी कारण वह इस्लाम में दाखिल हो जाए जैसा कि उस लड़के के साथ हुआ जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की सेवा करता था। तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का उससे मुलाकात करने के लिए जाना और उसे इस्लाम की तरफ बुलाना उसके नरक की आग से बचने का कारण बना। तथा ह़ज़रत असमा रद़ियल्लाहु अ़न्हा का उनकी माँ के साथ का वाकिया उनकी परहेज़गारी का सुबूत है। क्योंकि वह अपनी माँ से मिलने से -अल्लाह न करे- नाफरमानी की वजह से नहीं रुकीं बल्कि इसलिए रुकीं की वह इस बारे में अल्लाह और उसके रसूल का आदेश जान लें। क्योंकि एक सच्चा मुसलमान अपनी ख्वाहिश को शरीयत के हुक्म से आगे नहीं रखता है।

इसी तरह ह़ज़रत उ़मर का अपने काफिर भाई को तोहफा भेजना इस बात का सबूत है कि मुसलमान काफिर (गैर-मुस्लिम) से नफरत नहीं करता है बल्कि उसके कुफ्र से नफरत करता है। इसलिए उसके इस्लाम में दाखिल होने की उम्मीद में वह उसके साथ अच्छा व्यवहार करता है। तथा इसी ह़दीस़ शरीफ में आया है कि "ह़ज़रत उ़मर रद़ियल्लाहु अ़न्हु ने वह जुब्बा मक्के में मौजूद अपने एक भाई को जो उस समय मुसलमान नहीं हुए थे भिजवा दिया था।" जिससे यह पता चलता है कि उनके गैर-मुस्लिम भाई ने बाद में इस्लाम कबूल कर लिया था। लिहाज़ा इसमें कोई शक नहीं कि हर अच्छे व्यवहार ने हर जमाने में बहुत से लोगों को इस्लाम में दाखिल करने में एक अच्छा किरदार अदा किया है।

लेकिन मुसलमान को इसका पूरा ख्याल रखना चाहिए कि गैर-मुस्लिमों के साथ संबंध रखने में उनकी हिदायत और रहनुमाई की नेक नियत शामिल हो और उनसे प्रभावित होने के चंगुल में न पड़े। और ऐसा सिर्फ उन लोगों के साथ होता है जिनका ईमान कमजोर हो।

और यह भी ख्याल रहे कि उनसे मुलाकात करने उनके इबादत की निशानियों, उनकी धार्मिक अकीदों या उनकी संसारिक त्योहारों जैसे नए साल और क्रिसमस आदि के मौके पर न की जाए और न ही उनकी इबादत की जगहों जैसे गिरजाघर आदि में ऐसे मौके पर उनसे मुलाकात की जाए जबकि वे अपनी रसमें अदा कर रहे हों ताकि शारीरिक तौर पर उनके साझेदारी न पाई जाए ताकि बाद में मानसिक तौर पर भी कोई असर न हो। क्योंकि ज्यादातर बाहर का असर अंदर पर पड़ता है भले ही कुछ जमाने बाद पड़े। तो जो उनकी धार्मिक रस्मों में शरीक होता है, हो सकता है कि उनका उस पर असर पड़ जाए और वह उन्हें अच्छा समझने लगे और समय गुजरते-गुजरते उनसे पूरी तरह से प्रभावित हो जाए। लिहाज़ा एहतियात इसी में है कि उनमें जाया ही न जाए ताकि इस बुराई का दरवाज़ा ही न खुले। 

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