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गैर-मुस्लिमों के मुर्दों के प्रति उनके अधिकार
(8) गैर-मुस्लिमों के मुर्दों के प्रति उनके अधिकार
अगर कोई गैर-मुस्लिम की मृत्यु हो जाती है, तो उसके परिवारवालों या रिश्तेदारों के प्रति संवेदना (ताज़ियत) देने की अनुमति और इजाज़त है। संवेदना का मतलब दुखी और मुसीबत में फंसे व्यक्ति को दुख और मुसीबत सहने के लिए मजबूत करना (और उसे सब्र करने के लिए कहना) है। उदाहरण के लिए, मृतक के परिवार वालों या रिश्तेदारों के प्रति संवेदना व ताज़ियत व्यक्त करते हुए कहे: अल्लाह आपको इससे बेहतर प्रदान करे, अल्लाह आपकी हालत ठीक करे, और इन्हीं जेसे अनेक शब्द कहे, न कि उनके लिए सवाब और मृतक के लिए दया, और क्षमा की प्रार्थना करे। क्योंकि वे सवाब, दया और क्षमा के योग्य नहीं हैं।
और याद रखें कि इससे गैर-मुस्लिमों को इस्लाम की तरफ लुभाना मक़सूद हो।
इसी तरह, मुसलमान इबरत और नसीहत के मकसद गैर-मुस्लिम की कब्र पर भी जा सकता है, लेकिन वहाँ जाकर न उसे सलाम करना चाहिए और न उसकी माफी और बखशिश की दुआ़ करनी चाहिए। इमाम मुस्लिम हज़रत अबू हुरैरह रद़ियल्लाहु अ़न्हु से बयान करते हैं कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने कहा:
“मैंने अपने रब से अपनी माँ के लिए माफ़ी मांगने की इजाज़त माँगी, लेकिन उसने मुझे इजाज़त नहीं दी और मैंने उनकी कब्र पर जाने की इजाज़त माँगी तो मुझे इजाज़त देदी। (3/65)
(हम पहले कह चुके हैं इस ह़दीस़़ शरीफ से इस बात की दलील पकड़ना हरगिज़ सही नहीं है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ गैर-मुस्लिमा थीं। बल्कि सही यह है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के धर्म पर ईमान वाली थीं। जैसा कि इमाम इब्न ह़जर अल-असकलानी और इमाम अल-सुयुती और अन्य विद्वानों ने इसकी तहकीकात की है। और ह़दीस़़ शरीफ में है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "हमेशा अल्लाह मुझे सम्मानित पीठों और पवित्र गर्भाशयों में स्थानांतरित करता रहा यहाँ तक कि मुझे मेरे माता-पिता से पैदा किया।” और एक अन्य ह़दीस़ में है: “मैं हमेशा पवित्र पुरुषों की पीठ से पवित्र महिलाओं की पीठों में स्थानांतरित होता रहा।” और मुशरिकों (गैर-मुस्लिमों) के बारे में अल्लाह फरमाता है: ﴿إِنَّمَا الْمُشْرِكُون نَجَسٌ ﴾ यानी मुशरिक तो निरे नापाक हैं। इसीलिए ज़रूरी है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के सभी माता-पिता मुसलमान हों और कोई भी गैर-मुस्लिम न हो। क्योंकि गैर-मुस्लिम नापाक हैं जैसा कि क़ुरआन में बताया गया और नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पाक व पवित्र पुश्तों व गर्भाशयों से होते हुए पाक और पवित्र पुश्त व गर्भाशय से पैदा हुए हैं। लिहाज़ा साबित हुआ कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की माँ ह़ज़रत आमना और पिता ह़ज़रत अ़ब्दुल्लह दोनों मुसलमान और जन्नती हैं। इस मुद्दे की और ज़्यादा दलीलों के लिए आला ह़ज़रत इमाम अहमद रज़ा खान की किताब "शमुल-उल-इस्लाम लि उसूल अल-किराम" और इमाम जलाल-उद-दीन सुयुति की नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के माता-पिता की निजता के बारे में लिखी किताबें पढ़ें। उन्होंने इस बारे में कई किताबें लिखी हैं जिनमें से एक है "अल-ताज़ीम व अल-मिन्नह फी अन्ना अबवय अल-रसूल फी अल-जन्नह" है। अनुवादक)
तथा मुसलमान के लिए गैर-मुस्लिम को स्नान और कफन देना भी जायज़ नहीं है। क्योंकि पवित्र पैगंबर सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने बदर की लड़ाई में मारे गए गैर-मुस्लिमों को इसी तरह बिना स्नान और कफन के मिट्टी में दब दिया था।
और न ही उसकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ना जायज़ है। क्योंकि अल्लाह अपने प्यारे नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम से कहता है:
﴿وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰ أَحَدٍ مِّنْهُم مَّاتَ أَبَدًا وَلَا تَقُمْ عَلَىٰ قَبْرِهِ ۖ إِنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَمَاتُوا وَهُمْ فَاسِقُونَ ﴾
अनुवाद: और उनमें से जो भी मरे कभी भी उस पर नमाज़ न पढ़ना और न ही उसकी कब्र पर खड़े होना। वास्तव में, उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का इन्कार किया और अवज्ञा में ही मर गए।
(सूरह तौबा, आयत संख्या: 84)
अत: इस आयत में पैगंबर मोह़म्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम को (मुनाफिक और) काफिर की जनाज़े की नमाज़ पढ़ने से मना किया गया, जबकि जनाज़े की नमाज़ मृत्यु के लिए एक महत्वपूर्ण काम है और उसके लिए सबसे ज़्यादा लाभदायक है।
इसी तरह मुसलमान के लिए मुसलमान की तरह गैर-मुस्लिम के कफन पहनाने व दफनाने की जिम्मेदारी लेना भी जायज़ नहीं है। अगर गैर-मुस्लिम का कोई करीबी व रिश्तेदार न हो जो उसे कफन आदि देकर उसे दफन कर सके तो मुस्लमान के लिए जायज़ है कि वह उसकी लाश को जमीन में दफना दे। ताकि अन्य लोग इसकी बदबू से परेशान न हों। इसी तरह मुसलमान के लिए गैर-मुस्लिम के जनाज़े के साथ-साथ चलना या उसे कंधा देना या उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने की भी इजाज़त नहीं है।