1. सामग्री
  2. अल्लाह के पैगंबर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का गैर-मुस्लिमों के साथ व्यवहार
  3. गैर-मुस्लिमों से शादी करना

गैर-मुस्लिमों से शादी करना

(9) गैर-मुस्लिमों से शादी करना

     मुस्लिम महिला के लिए गैर-मुस्लिम पुरुष से शादी करना जायज़ नहीं है चाहे वह किताब वालों से हो यानी यहूदी या ईसाई हो या इनके अलावा कोई दूसरा गैर-मुस्लिम हो। क्योंकि सर्वशक्तिमान अल्लाह पवित्र क़ुरआन में कहता है:

﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا جَاءَكُمُ الْمُؤْمِنَاتُ مُهَاجِرَاتٍ فَامْتَحِنُوهُنَّ ۖ اللَّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَانِهِنَّ ۖ فَإِنْ عَلِمْتُمُوهُنَّ مُؤْمِنَاتٍ فَلَا تَرْجِعُوهُنَّ إِلَى الْكُفَّارِ ۖ لَا هُنَّ حِلٌّ لَّهُمْ وَلَا هُمْ يَحِلُّونَ لَهُنَّ ۖ وَآتُوهُم مَّا أَنفَقُوا ۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَا آتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ ۚ وَلَا تُمْسِكُوا بِعِصَمِ الْكَوَافِرِ وَاسْأَلُوا مَا أَنفَقْتُمْ وَلْيَسْأَلُوا مَا أَنفَقُوا ۚ ذَٰلِكُمْ حُكْمُ اللَّهِ ۖ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ ۚ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾

अनुवाद: ऐ इमान वालो! जब मुस्लिम महिलाएं तुम्हारे पास प्रवासियों के रूप में आएं तो उन्हें आज़मा लिया करो। अल्लाह उनके इमान को सबसे अच्छी तरह से जानता है। यदि वे तुम्हें इमान वालियाँ मालूम हों, तो उन्हें नास्तिकों (काफिरों) को वापस न दो, न ही ये उनके लिए जायज़ हैं और न ही वे इनके लिए जायज़। और उनके अविश्वासी (गैर-मुस्लिम) पतियों को दे दो जो उन्होंने खर्च किया है। और तुम पर कोई गुनाह नहीं कि तुम उनसे शादी करो जब तुम उन्हें उनके महर दो। और अविश्वासी (गैर-मुस्लिम) औरतों के विवाह पर मत रहो। और मांग लो जो तुम्हारा खर्च हुआ। और काफिर मांग लें जो उन्होंने खर्च किया। यह अल्लाह की आज्ञा है। वह तुम्हारे बीच फैसला करता है। और अल्लाह बहुत जानने वाला ह़िकमत वाला है।

(सूरह अल-मुमतहिनह, आयत संख्या: 10)

और दूसरी आयत में फरमाता है।:

﴿وَلَا تَنكِحُوا الْمُشْرِكَاتِ حَتَّىٰ يُؤْمِنَّ ۚ وَلَأَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكَةٍ وَلَوْ أَعْجَبَتْكُمْ ۗ وَلَا تُنكِحُوا الْمُشْرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤْمِنُوا ۚ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكٍ وَلَوْ أَعْجَبَكُمْ ۗ أُولَٰئِكَ يَدْعُونَ إِلَى النَّارِ ۖ وَاللَّهُ يَدْعُو إِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِإِذْنِهِ ۖ وَيُبَيِّنُ آيَاتِهِ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُونَ ﴾

अनुवाद: और शिर्क वाली (गैर-मुस्लिम) औरतों से निकाह न करो जब तक वे मुसलमान न हो जाएं। और बेशक मुसलमान दासी (गुलाम लड़की) मुशरिका (गैर-मुस्लिम महिला) से अच्छी है भले ही वह तुम्हें भाती हो। और (मुसलमान औरतें) मुशरिकों (गैर-मुस्लिम पुरुषों) के निकाह में न दो जब तक वे इमान न लाएं। और बेशक मुसलमान गुलाम मुशरिक (गैर मुस्लिम पुरुष) से अच्छा है भले ही वह तुम्हें भाता हो। वे नर्क की तरफ़ बुलाते हैं और अल्लाह अपने आदेश से स्वर्ग और माफी की तरफ बुलाता है। और अपनी आयतें लोगों के लिए बयान करता है कि कहीं वह नसीहत हासिल करें।

(सूरह अल-बक़रह, आयत संख्या:221)

इब्न सादी ने कहा: अल्लाह तआ़ला फरमाता है:

:﴿ وَلَا تُنكِحُوا الْمُشْرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤْمِنُوا﴾ यानी और (मुसलमान औरतें) मुशरिकों (गैर-मुस्लिम पुरुषों) के निकाह में न दो जब तक वे इमान न लाएं।) यह आदेश सबके लिए इसमें से कोई अलग नहीं है। उसके बाद मुसलमान पुरुष या मुसलमान महिला का उसके धर्म के विरोधी के साथ विवाह के नाजायज़ होने की हिकमत को बताया कि कहा गया: ﴿أُولَٰئِكَ يَدْعُونَ إِلَى النَّارِ ﴾ यानी वे (गैर-मुस्लिम) नर्क की तरफ़ बुलाते हैं अपने कहे, किये और रहन-सहन के द्वारा। लिहाज़ा उनसे मिल जुलकर और साथ रहने में बड़ा खतरा है। और यह कोई सांसारिक खतरा नहीं है बल्कि एक हमेशा बदबख्ती का खतरा है।

तथा आयत में विवाह के नाजायज़ होने के कारण से हर गैर-मुस्लिम और विदअत़ी के साथ मिल जुलकर रहने से निषेध की भी सिख मिलती है। क्योंकि जब उनके साथ विवाह की अनुमति नहीं है -जबकि उसमें कई फायदे हैं- तो भला उनके साथ मिल जुलकर रहना तो ओर भी जायज़ नहीं होगा खासकर ऐसा मिलना जुलना जिसमें गैर-मुस्लिम को मुस्लिम पर बड़ाई हासिल हो जैसे कि सेवा आदि के मामलों में। (पुस्तक: तैसीर अल-करीम अल-रह़मान फ़ी तफ़सीर कलाम अल-मन्नान)

इब्न सादी के शब्दों "खासकर ऐसा मिलना जुलना जिसमें गैर-मुस्लिम को मुस्लिम पर बड़ाई हासिल हो जैसे कि सेवा आदि के मामले में।" पर हम आगे मुस्लिम के गैर-मुस्लिमों के साथ काम करने के मसले में कुछ ओर बात करेंगे।

मुस्लिम पुरुष का यहूदी और ईसाई महिला के अलावा किसी अन्य गैर-मुस्लिम महिला से विवाह।

मुस्लिम पुरुष को यहूदी और ईसाई महिला के अलावा किसी अन्य गैर-मुस्लिम महिला से विवाह करना जायज़ नहीं है। क्योंकि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने इरशाद फ़रमाया है:

﴿وَلَا تَنكِحُوا الْمُشْرِكَاتِ حَتَّىٰ يُؤْمِنَّ﴾

अनुवाद: और शिर्क वाली (गैर-मुस्लिम) महिलाओं से विवाह न करो जब तक कि वे मुसलमान न बन जाएं।

(सूरह अल-बकरा, आयत संख्या: 221)

और जहाँ तक मुस्लिम पुरुष की यहूदी या ईसाई महिला से शादी करने की बात है, तो उससे शादी न करना ही बेहतर है। क्योंकि उससे शादी करना इस मुस्लिम व्यक्ति और उसके बच्चों के धर्म के लिए एक खतरा है, लेकिन अगर वह चाहे है तो कर सकता है, क्योंकि शरीयत एक मुस्लिम व्यक्ति को यहूदी और ईसाई महिला से शादी करने की अनुमति देती है, अतः अल्लाह फरमाता है:

﴿الیَوۡمَ اُحِلَّ لَکُمُ الطَّیِّبٰتُ ؕ وَ طَعَامُ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ حِلٌّ لَّکُمۡ، ۪ وَ طَعَامُکُمۡ حِلٌّ لَّهُمْ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الْمُؤْمِنَاتِ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ مِن قَبْلِكُمْ إِذَا آتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحْصِنِينَ غَيْرَ مُسَافِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِي أَخْدَانٍ ۗ وَمَن يَكْفُرْ بِالْإِيمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ ﴾

अनुवाद: आज तुम्हारे लिए जायज़ हुईं पवित्र चीजें और किताब वालों (यानी यहूदियों और ईसाइयों) का भोजन तुम्हारे लिए जायज़ हुआ, और तुम्हारा भोजन उनके लिए जायज़ है, और पवित्र मुस्लिम महिलाएं और तुमसे पहले जिन्हें किताब मिली (यानी यहूदी और ईसाई) उनकी पवित्र महिलाएं (तुम्हारे लिए जायज़ हैं) जब तुम उन्हें उनके महर दो विवाह में लाते हुए न कि व्याभिचार (ऐयाशी) करते हुए और न ही प्रेमिका बनाते हुए। और जो मुसलमान से काफिर हुआ तो उसका किया-धरा सब बेकार गया और वह आखिरत में नुकसान वालों में से है।

(सूरह अल-माएदह, आयत संख्या:5)

लेकिन फिर भी ऐसी यानी यहूदी या ईसाई महिला से शादी करने की कुछ शर्तें हैं:

(1) पवित्र हो और व्यभिचारी (ज़िना कार) न हो।

(2) निकाह इस्लामी कानून के नियमों के अनुसार होना चाहिए।

(3) मुस्लिम पिता को इस विवाह अनुबंध पर ऐसे मामले होने का डर न हो जो शरीयत के खिलाफ हों, उदाहरण के लिए किसी शहर या देश में यह कानून हो कि बच्चे अपनी माँ के अधीन रहते हों, और तलाक आदि की सूरत में बच्चों के पालने की ज़िम्मेदारी मुस्लिम पिता से अधिक माँ को दी जाती हो या बच्चे उसी को दिये जाते हों या माँ अपने धर्म में बहुत कट्टर हो कि बच्चों को भी वह सिखाए हो या उन्हें ईसाई या यहूदी चर्च में ले जाए। (तो ऐसी सूरत में उससे विवाह की अनुमति नहीं दी जाएगी।) क्योंकि ऐसी सूरत में इस मुस्लिम पति से जन्म लेने वाले बच्चों को सबसे बड़ा और सबसे खतरनाक नुकसान पहुंचेगा, वह यह कि वे मुसलमान होने के बाद कुफ्र व शिर्क से संतुष्ट होंगे।

(4) विवाह अनुबंध की सभी शर्तें पाई जाती हों।

(5) मुस्लिम पुरुष इस यहूदी या ईसाई महिला को यह अच्छी तरह बतादे कि हमारी शरीयत में शादी का हरगिज वह मतलब नहीं है जो तुम्हारे यहाँ दोस्ती का है। और यह भी समझादे कि तलाक, मृत्यु और बच्चों के पालन-पोषण आदि से संबंधित सभी अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का अच्छी तरह से ध्यान रखे।

(6) मुस्लिम पति के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी (यहूदी या ईसाई) पत्नी के साथ भी अपनी मुस्लिम पत्नी के साथ जैसा ही व्यवहार करे और खर्च आदि के मामले में उसके साथ वैसा ही न्याय करे। और उससे ऐसे ही प्रेम करे जैसी एक पति अपनी पत्नी से करता है। उससे धार्मिक रूप से प्रेम न करे और न ही उसके धर्म से राजी़ व खुश रहे। तथा उसके लिए यह आवश्यक है कि वह उसे इस्लाम में आमंत्रित करे यानी इस्लाम की तरफ बुलाए। क्योंकि यह अच्छाई की तरफ बुलाना है जो हर मुसलमान की ज़िम्मेदारी है।

(7) आज के समय कुछ मुस्लिम पुरुषों के गैर-मुस्लिम महिलाओं से शादी करने के नकारात्मक (निगेटिव) परिणाम सामने आए हैं, जिनमें से कुछ में तो उस पुरूष पर ही असर पड़ा है और कुछ में उसके बच्चों पर। खासकर ऐसे लोगों के उन गैर-मुस्लिम देशों से शादी करने के कारण जो वहाँ के नियमों से परिचित नहीं थे। लिहाज़ा हर मुसलमान को इससे संबंध शरीयत के नियमों के साथ-साथ अपने या जहाँ से वह शादी कर रहा है वहाँ के कानूनों और नियमों और दूसरे देश या धर्म में शादी जायज़ होने की शर्तों की पूरी तरह से जानकारी होना चाहिए।

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