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गैर-मुस्लिमों के बर्तन और कपड़े आदि अन्य सामान इस्तेमाल करना।
(3) गैर-मुस्लिमों के बर्तन और कपड़े आदि अन्य सामान इस्तेमाल करना।
गैर-मुस्लिम जो बर्तन और कपड़े आदि सामान इस्तेमाल करते हैं उनकी दो सूरतें हैं:
पहली सूरत: उनके सामान हराम और नाजायज़ चीजों से बने हों जैसे सूअर आदि की खाल या उसके अन्य अंग के बने हों या सोने चांदी के हों। इस सूरत में उनके ह़राम चीजों से बने होने की वजह से उनका इस्तेमाल करना जायज नहीं है।
इमाम बुखारी ने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की प्यारी पत्नी ह़ज़रत उम्मे सलमा रद़ियल्लाहु अ़न्हा से रिवायत की है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: "जो चांदी के बर्तन में पीता है बेशक वह अपने पेट में नर्क की आग भरता है।"
दूसरी सूरत: उनके सामान जायज़ चीजों से बने हों जैसे लोहा, लकड़ी आदि। ऐसी सूरत में उनके सामानों का इस्तेमाल करना जायज़ है जबकि उसे रोकने वाली कोई चीज न पाई जाती हो जैसे कि वे बर्तन के जिसमें सूअर का गोश्त पकाया गया हो और फिर उसे धोने के लिए पानी मौजूद न हो।
इमाम अहमद बिन हंबल और इमाम दाऊद ह़ज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रद़ियल्लाहु अन्हू से उल्लेख करते हैं कि उन्होंने इरशाद फ़रमाया कि हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ युद्धों में शामिल होते थे तो हमें गैर-मुस्लिमों के खाने-पीने के बर्तन भी मिलते थे तो हम उन्हें इस्तेमाल करके उनसे फायदा उठाते थे और सह़ाबा ए किराम इसे बुरा नहीं समझते थे।
इस ह़दीस़ शरीफ की रोशनी में यह कहा जा सकता है की गैर-मुस्लिमों के बनाए हुए सामान जैसे के जायज़ कपड़ों और कालीनों पर नमाज़ पढ़ना जायज़ है। तथा यह भी पता चलता है कि गैर-मुस्लिमों के बर्तनों के इस्तेमाल के जायज होने या नाजायज़ होने का संबंध विशेष बर्तनों से नहीं है बल्कि इसका संबंध उस चीज से है जिससे वे बनाए गए हों, अगर वे पाक और जायज़ चीज से बनाए गए हैं तो उनका इस्तेमाल जायज है वरना नजायज है। तथा इससे यह भी पता चलता है कि इंसानी जिंदगी की जरूरी चीजों जैसे कि खाने, पीने, पहनने, और यात्रा करने आदि में इस्लाम गैर-मुस्लिमों के साथ व्यापार करने या उनकी बनाई हुई नई-नई चीजों से फायदा उठाने से नहीं रोकता है। इस्लाम उनके बर्तनों के इस्तेमाल से मना नहीं करता है जबकि वे शरीयत के मुताबिक हों और पाक और जायज़ चीजों से बनाए गए हों। और इस्लाम का उनके साथ व्यापार जायज करना जिससे उन्हें माली फायदा होता है इस बात को बताता है कि इस्लाम का उन्हें अपने अंदर दाखिल होने को कहने और उसके लिए हमेशा कोशिश में रहने से मकसद उनके माल और दौलत की लालच नहीं है बल्कि मकसद सिर्फ यह है कि वे बिना किसी को साझा किए केवल अल्लाह की इबादत करें। क्योंकि वह इस्लाम जो उनको काफिर होने के बावजूद भी फायदा उठाने और माल कमाने से नहीं रोक रहा है तो भला वह उनके इस्लाम में आजाने के बाद उनसे उनका माल कैसे ले सकता है??!!